Wednesday , May 1 2024

“कोहबर की शर्त”

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
पता नहीं क्या आयु थी जब प्रथम बार “नदिया के पार” देखी थी। तब से न जाने कितनी बार देखी, कुछ स्मरण नहीं। हृदय में गूंजा और चंदन कुछ ऐसे बसे हैं जैसे प्रेम करने का अर्थ ही “गुंजा हो जाना” है। परदे पर जब-जब गुंजा ने चंदन से कहा, “तुमसे खेले बिना हमारा फगुआ कैसे पूरा होता..!” तब-तब लगा है जैसे उनके साथ साथ हम भी प्रेम को ‘जी’ रहे हों। बलिहार से चौबे छपरा जाते चंदन-गुंजा ने जब-जब दीपासती को प्रणाम किया, तो उनसे पहले हमने प्रार्थना की,” हे दीपासती, चंदन ही गुंजा की मांग भरे..”
रूपा की गोद में मुह छिपा कर सिसकती गुंजा को देख कर हर बार रूपा से पहले हमने कहा होगा-“यह क्या रे! रोती क्यों है तू? जो चाहती है, वही होगा। चन्दन ही तेरी मांग भरेगा, रो मत।”
हमारी पीढ़ी के असंख्य युवकों ने चन्दन और गुंजा से ही प्रेम करना सीखा है।
हमारी पीढ़ी का स्यात ही कोई गंवई युवक या युवती ऐसी हो जो आज भी “कवन दिशा में ले के चला रे बटोहिया…” सुन के मुस्कुरा न उठे।
अस्सी के दशक में जन्मे हजारों लड़कों का नाम चन्दन, और हजारों लड़कियों का नाम गुंजा इसी फिल्म के कारण रखा गया।
साँच में मुम्बइया प्रेम कहानी से अलग यह एक ऐसी प्रेमकथा थी जिसकी नायिका के अंदर “जवानी” नहीं, बचपना भरा हुआ था। जिसका नायक नायिका की देह देख कर प्यार में नहीं पड़ता, उसे जाने क्यों नायिका के साथ रहने में खुशी मिलने लगती है। दोनों का प्रेम ऐसा है जैसे दो ग्रामीण बच्चे गोटी खेल रहे हों। वे कब झगड़ते हैं, कब रूठते हैं और कब एक दूसरे की नाक खींच कर हँसने लगते हैं यह उन्हें भी ज्ञात नहीं होता।
कुछ दिन पूर्व एक मित्र (योगी अनुराग) ने “कोहबर की शर्त” उपन्यास भेजी। यह वही उपन्यास है जिसपर “नदिया के पार” और “हम आपके हैं कौन” फ़िल्म बनी। उपन्यास पढ़ते समय मानस में फ़िल्म भी चल रही थी। चन्दन का बलिहार जाना, ओंकार का विवाह, भउजी का का घर सम्भालना, गुंजा का बलिहार आना, बलिहार का फगुआ और गुंजा-चन्दन का प्रेम… सबकुछ पूर्व से ज्ञात था। निर्देशक ने संवाद तक उपन्यास से ही उठाया है, अच्छर-अच्छर वही… फिर भउजी की असमय मृत्यु, और गुंजा से ओंकार का विवाह तय होना…
पर इस पाठक को इसका कोई भय नहीं, उसने “नदिया के पार” फ़िल्म में देखा है कि गुंजा की माँग चन्दन ही भरता है। उसे याद है वह अमर विवाह गीत, “जबतक पूरे न हों फेरे सात, तबतक दुल्हन नहीं दूल्हा की…”।
पर यहीं टूटता है एक पाठक का हृदय! उसे पूर्व से पता था कि विवाह के मड़वे में गुंजा बेहोश को कर गिरेगी, और सबकुछ जान कर ओंकार चन्दन और गुंजा को एक कर देगा। पर न गुंजा बेहोश हुई, न ओंकार को चन्दन-गुंजा के प्रेम के बारे में पता चला। गुंजा चन्दन की भउजी बन कर बलिहार आयी है।
इसके आगे पढ़ पाना सम्भव नहीं। गुंजा चन्दन को देवर के रूप में पा कर मन ही मन कुहूके यह मुझ जैसे एक देहाती से नहीं देखा जाएगा।
मित्र ने बताया कि आगे उपन्यास के सारे पात्र मरते जाते हैं। पहले काका मरते हैं, फिर ओंकार… चन्दन गुंजा को तीन रूपों में देखता है। कुँवारी गुंजा, सुहागन गुंजा और विधवा गुंजा… फिर उपन्यास के अंतिम पृष्ठ पर चन्दन गुंजा का शव भी गङ्गा में प्रवाहित करते हैं। केशव प्रसाद मिश्र ऐसा लिख सकते थे, सो लिख दिए पर हम पढ़ नहीं सकते। चन्दन के सामने ही यदि गुंजा सफेद साड़ी पहने विधवा दिखे, तो यह देख सकने का साहस हममें नहीं…
हम तो देहात के वे लोग हैं जो हर गुंजा को अपने चन्दन के साथ खिलखिलाते देखना चाहते हैं। गुंजाये अपने चन्दनों के साथ ही सोभती हैं। हम न उसे ओंकार के साथ ब्याहे जाते देख सकते हैं, न ही उसे बिधवा होते देख सकते हैं और ना ही उसे मरते देख सकते हैं।
उपन्यास में क्या है वह उपन्यास के लेखक जानें, हमारी गुंजा हमेशा चन्दन के साथ खिलखिलायेगी। उसके पैर रँग देगी, उसके मुह पर रँग से मूंछ बना देगी, उसे परेशान करेगी फिर एक ही साथ दोनों खिलखिला उठेंगे। हृदय उपन्यासों के आदेश नहीं मानता…
कोहबर की शर्त अब आगे नहीं पढ़ सकते, यह किताब मेरी अलमारी के कोने में ही दबी रहेगी अब…

 

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