जयपुर। राजस्थान विधानसभा चुनाव में इस बार भी जातिवाद हावी है. एक बार फिर विकास, विचारधारा, अन्य मुद्दे सभी दब गए हैं. हालांकि चुनाव लड़ने वाले नेता पहले विकास और अन्य मुद्दों की बात करते हैं लेकिन चुनाव के नजदीक आते ही एक मात्र मुद्दा बच जाता है वह है जातिवाद का जो अभी राजस्थान के चुनाव में जारी है. इसलिए पार्टी अपने उम्मीदवार पहले ही जातिगत आधा तय करती है.
जातिगत समीकरण चुनाव और उम्मीदवार के गणित को प्रभावित करते हैं. राजनीतिक दलों द्वारा कहा जाता है कि उम्मीदवारों के चयन में पूरी पारदर्शिता है और योग्यता के आधार पर चयन किया जा रहा है. लेकिन जीतने वाले उम्मीदवार की चाह में राजनीतिक शुद्धिकरण की ये बातें पीछे छूट जाती है. और शुरू होता है जातिगत समीकरण को देखते हुए टिकट का बंटवारा. हैरत की बात यह है कि चुनाव में जाति के आधार पर टिकट लेने वाला उम्मीदवार खुद को सभी जाति का नेता बताते हैं.
इस बार भाजपा और कांग्रेस ने इसी लाइन पर प्रदेश की 60 सीटों पर एक ही जाति के उम्मीदवारों को आमने-सामने करके जातियों में अंदरूनी संघर्ष की स्थिति पैदा कर दी है. अब तक एक जाति के खिलाफ दूसरी जाति का उम्मीदवार उतारकर समीकरणों को अपने पक्ष में करने की कोशिशें तो होती आई हैं. पर इस बार नजारा अलग है. राजनैतिक दलों के शीर्ष नेताओं ने जातिगत मतदाताओं के आधार पर टिकट देकर प्रत्याशियों को मैदान में उतार दिया है.
राजस्थान में कुल 200 विधानसभा सीटों में से 59 रिजर्व सीट है, जिसमें 34 एससी के लिए और 25 एसटी वर्ग के लिए आरक्षित है. वहीं, 141 सीटें सामान्य वर्ग के लिए आरक्षित हैं. उसके बावजूद दोनों पार्टियों ने एससी-एसटी की रिजर्व सीटों के अलावा सामान्य सीटों पर भी जातिगत आधार को देखते हुए आरक्षित वर्ग के प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है. कांग्रेस ने एक सामान्य सीट पर एससी का प्रत्याशी मैदान में उतारा है. वहीं जातिगत मतदाताओं के आधार पर भाजपा ने सामान्य सीट पर एसटी के तीन प्रत्याशी और कांग्रेस ने एसटी की सीट पर 4 प्रत्याशी पर मैदान में उतारे हैं.
विधानसभा के चुनाव में जातीय समीकरणों की बेहद अहम भूमिका मानी जा रही है. भले ही पार्टियों का कह रही हों कि वे जातिगत आधार पर नहीं मुद्दों पर चुनाव लड़ रही हैं, लेकिन हकीकत यह है कि टिकटों के बंटवारे से लेकर वोट मांगने तक में जातियों के समीकरण बेहद मजबूत माने जाते हैं. हर राजनीतिक दल का हर बड़ा नेता अपने भाषणों में जातिवाद के खिलाफ बोलता है, लेकिन चुनावी राजनीति में जातिवाद के प्रति अपनी पूरी प्रतिबद्धता दिखाता है.
हर चुनाव में जनहित के मुद्दे पूरी तरह गौण हो जाते हैं और जाति के आधार पर वोट बटोरने का खेल शुरू हो जाता है. सियासत में सामने वाले पर भारी कैसे साबित हों, यही दांव आखिरी होता है. इसके लिए चाहें भाई को भाई से या जाति को जाति से लड़ाना पड़े. इस बार भाजपा और कांग्रेस ने इसी लाइन पर प्रदेश की 60 सीटों पर एक ही जाति के उम्मीदवारों को आमने-सामने करके जातियों में अंदरूनी संघर्ष की स्थिति पैदा कर दी है.