राजेश श्रीवास्तव
आखिर कौन सा ऐसा कारण है जो बड़ी संख्या में आईआईटियन को यूपीएससी की तैयारी करने पर मजबूर कर दे रहा है । कड़ी आपाधापी के बाद आईआईटी या नीट में चयनित होने के बाद भी बच्चों में यूपीएससी की चाहत कम नहीं हो रही है। कहीं यूपीएससी का ग्लैमर देश के सर्वश्रेष्ठ इंजीनियर और चिकित्सकों को तो नहीं हमसे छीन रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं देश की सर्वश्रेष्ठ सेवा में जाने का ग्लैमर, उसकी शानो-शौकत ही है क्योंकि यूपीएससी का वेतन तो लुभा नहीं सकता हां यह बात और है कि उसका ‘हिडेन’ अर्थ लोगों को अपनी ओर खींच रहा है। क्योंकि जहां पर आईआईटी का पैकेज लाखों और करोड़ों में है वहां पर यूपीएससी की सैलरी हजारों में? तो क्या सुरक्षा, सम्मान, निजी जीवन या फिर करोडों का पैकेज आदमी को प्रतिस्पर्धा की मशीन बना रहा है। इसका दूसरा पहलू भी है आईआईटी और चिकित्सा में चयनित छात्र जब यूपीएससी की ओर जाते हैं तो इस दिशा में प्रयास कर रहे सामान्य छात्रों की उनींदी आंखों में जो सपने बुने जा रहे होते हैं उसको भी छीन ले रहे हैं।
एक रिपोर्ट के मुताबिक यूपीएससी परीक्षा में भाग लेने वाले छात्रों की संख्या सबसे ज़्यादा आईआईटी कानपुर तो अपने समकक्षों की तुलना में सफलता दर काफ़ी ज़्यादा आईआईटी बॉम्बे की है। वर्ष 2०2० में तो यहीं के शुभम ने सिविल सेवा परीक्षा में प्रथम अंक हासिल किया था । कार्मिक, लोक शिकायत, विधि एवं न्याय पर विभाग संबंधित संसदीय स्थायी समिति ने अपनी 131वीं रिपोर्ट में उल्लेख किया है कि अधिकांश अधिकारी तकनीकी और चिकित्सा पृष्ठभूमि से भर्ती किए जाते हैं। आजकल यूपीएससी द्बारा सिविल सेवाओं में 7०% से अधिक भर्ती तकनीकी धाराओं से होती हैं। इस प्रकार हर साल सैकड़ों टेक्नोक्रेट खो जाते हैं, जो अन्य विशिष्ट क्षेत्रों में काम करने की संभावना रखते हैं, जो राष्ट्र की आवश्यकता भी है। इसलिए, डॉक्टर और शीर्ष टेक्नोक्रेट खो रहे हैं जो बहुत अच्छे डॉक्टर और इंजीनियर के रूप में प्रदर्शन कर सकते हैं। सिविल सेवक बनने का आकर्षण अन्य क्षेत्रों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। इसलिए, समिति का मानना है कि सिविल सेवा के लिए भर्ती की पूरी प्रक्रिया पर पुनर्विचार करने का समय आ गया है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल 15 लाख इंजीनियर स्नातक होते हैं, जिनमें से केवल 2.5 लाख छात्रों को तकनीकी क्षेत्र में कोई प्रासंगिक नौकरी मिल पाती है। केवल 3% (लगभग 4०,०००) को उच्च गुणवत्ता, उच्च वेतन वाली नौकरी मिलती है। आईआईटी का ही मामला लें, 2०23 में आईआईटी में प्रवेश के लिए केवल 17,385 सीटें उपलब्ध घोषित की गई थीं। इसलिए, हर साल आईआईटी 17,००० से अधिक इंजीनियरिग स्नातक तैयार करते हैं। हालाँकि सीएसई में रिक्तियाँ लगभग 1००० हैं। इसलिए, यदि सभी 1००० सीटें विभिन्न आईआईटी के इंजीनियरों द्बारा ली जाती हैं, तब भी 16००० ‘असाधारण’ इंजीनियर इंजीनियरिग क्षेत्र में नौकरी करने के लिए उपलब्ध हैं। इसलिए, इंजीनियरों की कमी कोई मुद्दा नहीं है। इसी तरह, एक रिपोर्ट के अनुसार, शैक्षणिक वर्ष 2०23-24 के लिए काउंसलिग के दौरान, 71० मेडिकल कॉलेजों में कुल 1,1०,००० एमबीबीएस सीटें उपलब्ध थीं। इस प्रकार, भारत हर साल लगभग 1 लाख योग्य और लाइसेंस प्राप्त एमबीबीएस डॉक्टर तैयार करता है। उनमें से कुछ पोस्ट-ग्रेजुएशन में शामिल होंगे, लेकिन फिर भी, हर साल सीटों की बढ़ती संख्या के साथ, कई योग्य डॉक्टर रोजगार के लिए उपलब्ध हैं। उनमें से कुछ का सीएसई के लिए चयनित होना बहुत फर्क नहीं डाल सकता है। इसलिए, योग्य चिकित्सा पेशेवरों की कोई कमी नहीं है।
लेकिन इन सबके बावजदू क्या इंजीनियरों और डॉक्टरों जैसे पेशेवरों को सिविल सेवा परीक्षा में प्रतिस्पर्धा करने की अनुमति दी जानी चाहिए? इस पर यूपीएससी द्बारा 1988 में गठित डॉ. सतीश चंद्र समिति ने कुछ इसी आधार पर रिपोर्ट दी थी कि सरकारी संस्थानों में इंजीनियरिग और मेडिकल की शिक्षा महंगी और अत्यधिक सब्सिडी वाली है। पेशेवरों को गैर-तकनीकी नौकरी के लिए अपना पेशा छोड़ने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए । हमारे देश के तेजी से बढ़ते औद्योगिकीकरण के लिए इस पेशे में बने रहने और राष्ट्र की तकनीकी प्रगति में योगदान देने के लिए प्रतिभाशाली इंजीनियरों की आवश्यकता है । हमारे पास डॉक्टरों की कुल कमी है, और हमें अस्पताल में उनकी आवश्यकता है। डॉ. चंद्रा समिति ने कहा कि उच्च सिविल सेवा अभी भी डॉक्टरों और इंजीनियरों को आकर्षित करती है, जो इस बात का संकेत है कि हमारे सामाजिक मूल्य प्रणाली में आज भी उच्च सिविल सेवा के सदस्यों को उच्च दर्ज़ा प्राप्त है। यह कैरियर के अवसरों में असमानताओं को भी दर्शाता है। उन उपायों पर विचार किया जाना चाहिए जो अंतत: स्थिति को ठीक कर सकते हैं। यह बात सही है कि डॉक्टरों और इंजीनियरों को उच्च सिविल सेवाओं के लिए प्रतिस्पर्धा से बाहर करना सही नहीं होगा। लेकिन इस पर सरकार को कोई कारगर कदम उठाना होगा नहीं तो यह असंतुलन सामान्य छात्रों के सपनों पर पलीता लगाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे। बड़ी संख्या में उम्मीदवार पीएसआईआर, विज्ञान आदि जैसे मानविकी विषयों के साथ सीएसई में शीर्ष स्थान हासिल कर रहे हैं। यदि कोई इंजीनियरिग या मेडिकल पृष्ठभूमि का उम्मीदवार कोई मानविकी विषय लेता है, तो वह अपनी यात्रा बिल्कुल नए सिरे से शुरू कर रहा है, मानविकी पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहा है, जिन्होंने अपने यूजी व पीजी स्तर पर विषय का अध्ययन किया है। कभी-कभी, इंजीनियरिग पृष्ठभूमि के उम्मीदवार अन्य विज्ञान विषयों (मुख्य रूप से भौतिकी या गणित) को अपने वैकल्पिक विषय के रूप में लेते हैं (उदाहरण के लिए सीएसई 2०18 में कनिष्क कटारिया एआईआर 1, प्रीतम कुमार और शुभंकर प्रत्यूष पाठक, सीएसई 2०21 में क्रमश: एआईआर 9 और 11 ने गणित लिया)। शुद्ध इंजीनियरिग या विज्ञान वैकल्पिक, उन्हें मेन्स में प्रीलिम्स और जीएस पेपर की तैयारी में मदद नहीं करता है, जो अन्य मानविकी विषय करते हैं यूपीएससी, एक बेहद सुरक्षित फॉर्मूले के ज़रिए वैकल्पिक विषयों में अंकों के अंतर को कम करता है। यही कारण है कि इंजीनियर खुद भी वैकल्पिक विषय के रूप में मानविकी को चुन रहे हैं क्योंकि उन्हें गणित या भौतिकी के लिए ज़्यादा पढ़ना पड़ता है। इतना ही नहीं 2०11 में लोक सेवा आयोग ने पीसैट पैटर्न की शुरुआत की जिसके तहत गणित और रीजनिंग की शुरुआत की और तब से हर वर्ष इसका स्तर टफ होता जा रहा है। जिसके चलते नान इंजीनियर्स लोग कम होते जा रहा हैं। उनको इन दोनो विषयों में कठिनायी होती है। जबकि आईआईटी के लोग इसके चलते बाजी मार रहे हैं। यही सब आंकड़े साधारण कोटे से आने वाले छात्र-छात्राओं को आईआईटी या मेडिकल से आने वाले लोग कड़ी टक्कर दे रहे हैं। जो न केवल उनके हक-हुकूक पर एक तरह से हमला है बल्कि सरकारी धन का भी नुकसान है क्योंकि सरकार इंजीनियर व चिकित्सक बनाने के लिए भी बड़ी धनराशि मुहैया कराती है फिर जब ये यूपीएससी में जाते हैं तो उसका पलीता लगना स्वाभाविक है।