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लोजपा और आरएलएसपी जैसे छोटे दलों को महंगी पड़ सकती हैं अपनी बड़ी मांगें

नई दिल्ली। देश में लोकसभा चुनाव का माहौल बनना शुरू होने के बाद से एनडीए में भारतीय जनता पार्टी के वे सहयोगी दल भी अब सिर उठाने की कोशिश कर रहे हैं, जो अब तक शांति से अपना काम कर रहे थे. महाराष्ट्र में शिवसेना और आंध्र प्रदेश में तेलगू देशम पार्टी तो पहले से ही मुखर थीं और बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने इनकी मांगों के सामने न झुकने का फैसला किया. नतीजा यह निकला कि टीडीपी एनडीए से बाहर हो गई और शिवसेना के लोकसभा चुनाव अलग लड़ने की संभावना है.

लेकिन अब देखने में आ रहा है कि रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी भी परोक्ष तौर पर बीजेपी पर दबाव बनाने की कोशिश कर रही हैं. लोजपा ने जहां अनुसूचित जाति जनजाति कानून में सुप्रीम की ओर से दी गई छूट को मुद्दा बनाया, वहीं उपेंद्र कुशवाहा पिछले कई बयानों में खुद को बिहार में एनडीए के नेता के तौर पर पेश कर चुके हैं.

छिन जाएगा मुद्दा
बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की नजर इन बातों पर है. केंद्र सरकार जिस तरह खुद कानून के जरिए अनुसूचित जाति जनजाति उत्पीड़न कानून को फिर ताकतवर बना रही है, उससे लोजपा के हाथ से एक मुद्दा छिन जाएगा. वहीं आरएलएसपी को भी बीजेपी बहुत भाव देने के चक्कर में नहीं है.

नहीं मिलेगी मोलभाव की छूट
बिहार भाजपा के एक शीर्ष नेता ने बताया कि लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार के बीजेपीके साथ चुनाव लड़ने की पूरी संभावना है, ऐसे में पासवान या कुशवाहा जैसे नेताओं को बहुत मोलभाव करने की छूट नहीं दी जाएगी.

बीजेपी की यह रणनीति इसलिए भी बदली है क्योंकि 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी को मोदी लहर का अंदाजा नहीं था और तब पासवान की पार्टी को 7 और कुशवाहा की पार्टी को 3 सीटें गठबंधन में मिली थीं. पासवान इनमें से छह सीट जीत गए और कुशवाहा तीनों सीटें जीत गए. जबकि इस चुनाव में दोनों पार्टियों को क्रमश: 6.40 फीसदी और 3 फीसदी वोट ही मिले.

पासवान-कुशवाहा विधानसभा में रह गए पीछे
वहीं 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश-लालू का गठबंधन हो जाने के बाद इन पार्टियों ने बीजेपी पर दबाव बनाकर लड़ने के लिए 40 और 23 सीटें हासिल कीं. तब बीजेपी के साथ रहे जीतनराम माझी की पार्टी को भी 21 सीटें दी गईं. लेकिन पासवान सिर्फ 2 सीट और कुशवाहा भी सिर्फ 2 सीट जीत पाए. पासवान को महज 4.8 फीसदी और कुशवाहा को 2.6 फीसदी वोट मिले.

इन हालात पर दिल्ली में बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, ‘अगर कोई मुठ्ठीभर वोट के साथ खुद को दलितों का चैंपियन या बिहार का नेता समझने लगे तो हम क्या कर सकते हैं.’

जेडीयू है साथ, फिर क्या डर
बीजेपी की स्पष्ट रणनीति है कि अगर जेडीयू बीजेपी के साथ चुनाव लड़ती है तो उसके पास छोटे सहयोगियों के लिए बड़ी जगह नहीं होगी. ऐसे में अगर ये दल अपनी बड़ी मांगों पर अड़े रहे तो 3 और 4 फीसदी वोटों वाली इन पार्टियों को गठबंधन से आजाद होने से बीजेपी नहीं रोकेगी.

बीजेपी का मानना है कि पासवान का इतिहास देखते हुए पार्टी उन पर वैसे भी बहुत ज्यादा भरोसा नहीं कर सकती. वहीं विधानसभा चुनाव में ढाई फीसदी वोट पाने वाले कुशवाहा कुछ ज्यादा ही मांग कर रहे हैं. उधर पार्टी को जेडीयू के लिए भी जगह बनानी है. ऐसे में नए समीकरणों में दूसरे दलों के लिए बीजेपी के पास बहुत सीमित गुंजाइश है. खासकर जिस तरह पार्टी 470 सीटों पर अपने दम पर चुनाव लड़ने का मन बना चुकी है, उससे जल्द ही कई बड़े फैसले सामने आएंगे.

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