नई दिल्ली। आधुनिक तमिलनाडु के शिल्पकार, द्रविड़ राजनीति के पुरोधा, पूर्व मुख्यमंत्री और द्रविड़ मुनेत्र कषगम चीफ एम. करुणानिधि ने मंगलवार को आख़िरी सांस ली. 3 जून 1924 को तमिलनाडु के एक निम्नवर्गीय परिवार में जन्म लेने वाले इस करिश्माई नेता ने बेहद कम उम्र में राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी. ईवी रामासामी पेरियार की विचारधारा से प्रभावित करुणानिधि आधुनिक तमिलनाडु के शिल्पकार माने जाते हैं. राजनीतिक जीवन में उन्होंने कई ऐसे काम किए जो किसी भी नेता के लिए मिसाल से कम नहीं है.
हालांकि कई दशक तक तमिलनाडु की जनता के दिलों पर राज करने वाला नेता, दशकों तक उत्तर भारत के लोगों की आलोचना का पात्र भी बना रहा. ऐसा हिंदी को लेकर उनके हठ और विरोध की वजह से रहा. गौर से देखें तो राजनीति में करुणानिधि का उदय और शिखर पर पहुंचना भाषा विरोध के नाम पर पनपी राजनीति से ही हुआ.
करुणानिधि का जन्म 3 जून 1924 को तमिलनाडु के एक निम्नवर्गीय परिवार में हुआ. जब करुणानिधि बड़े हो रहे थे, तमिल समाज में असमानता, जातीय भेदभाव और धार्मिक पाखंड के खिलाफ पेरियार की राजनीति मजबूत हो रही थी. तमिलनाडु में पेरियार ने एक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन खड़ा कर दिया था. ये आंदोलन ब्राह्मणवाद के कर्मकांड और धार्मिक पाखंड के खिलाफ था. 1937 में गैर हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी के अनिवार्य शिक्षण लागू करने की योजना थी. हालांकि अहिंदी क्षेत्रों में इसका जमकर विरोध हो रहा था. खासकर दक्षिण के राज्य अपने आशियाने में किसी दूसरी भाषा को प्रश्रय देने की बात पचा नहीं पा रहे थे. इनमें तमिलनाडु सबसे आगे था.
तमिलनाडु में हिंदी शिक्षण को तमिल पर किसी दूसरी भाषा को थोपने की तरह लिया गया. इसे तमिल अस्मिता से भी जोड़ा गया. उस वक्त पेरियार ने इसका तार्किक विरोध किया. तब पेरियार के कई युवा अनुयायी भी हिंदी के खिलाफ सडकों पर उतर आए. इनमें से करुणानिधि भी एक थे. वो कल्लाक्कुडी में युवाओं का नेतृत्व कर रहे थे. इसके लिए उन्होंने युवाओं का एक संगठन भी खड़ा किया. कुछ लोग इसे द्रविड़ राजनीति का पहला छात्र संगठन भी मानते हैं. उस वक्त उनकी उम्र महज 14 साल थी. आंदोलन के दौरान हिंसा की वजह से करुणानिधि को गिरफ्तार भी किया गया.
इस आंदोलन के बाद करुणानिधि ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. उन्होंने फ़िल्मी पटकथाओं और नाटकों के लेखन में द्रविड़ राजनीति के सिद्धांतों का जमकर इस्तेमाल किया. करुणानिधि लोगों के दिलों में राज करने लगे. बाद में वो विधानसभा भी पहुंचे. निधन तक अपने जीवनकाल में करुणानिधि ने कोई चुनाव नहीं हारा. आजादी के बाद भारत में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की मांग जोर पकड़ने लगी. 60 के दशक में इसके खिलाफ और समर्थन में देशव्यापी आंदोलन खड़ा हुआ. गैर हिंदी भाषी राज्यों खासकर तमिलनाडु में हिंदी के विरोध का आंदोलन बहुत व्यापक और हिंसक हो चुका था. और विरोध करने वालों में सबसे आगे करुणानिधि और उनका परिवार था. वो कई बार अलग-थलग भी पड़े और व्यापक आलोचनाएं भी झेला, लेकिन उन्होंने हिंदी से कभी भी समझौता नहीं किया.
अंतिम दिनों तक करुणानिधि हिंदी का विरोध करते रहे. जब भी मौका मिला खुलकर हिंदी के विरोध में रहे. राजनीतिक व्यक्तित्व के इस पहलू की वजह से हिंदी भाषी राज्यों में कभी भी लोगों ने करुणानिधि को उनके पूरे स्वरूप के साथ स्वीकार नहीं किया. वो जितना हिंदी विरोधी रहे, राष्ट्रीय राजनीति की शीर्ष पंक्ति में आने के बावजूद हिंदी पट्टी ने भी उनका उतना ही विरोध किया. एक तरह से करुणानिधि के व्यक्तित्व का यह विरोधाभाष दिलचस्प है. जातीय भेदभाव का विरोध करने वाला ‘कलैगनार’, आजन्म भाषागत छुआछुत मानता रहा.