पीयूष बबेले
पहले मुजफ्फरपुर और अब देवरिया. क्या बिहार और क्या यूपी. दोनों जगह से महिलाओं के उत्पीड़न और यौन शोषण की एक-सी कहानियां सामने आ रही हैं. ये दहलाने वाली कहानियां फिल्मों की कल्पनाशीलता से भी ज्यादा भयानक हैं. और इनका सबसे बुरा पहलू यह है कि महिलाएं और बच्चियां उस जगह पर शोषण का शिकार हुईं, जहां उन्हें इस भरोसे के साथ रखा जाता है कि वे दुनिया की बाकी असुरक्षित जगहों की तुलना में यहां ज्यादा सुरक्षित रहेंगी. लेकिन उनके लिए बनाए गए नारी निकेतन उनके नरक निकेतन बन गए हैं.
हम यहां वैसे तंज नहीं उछालें कि क्यों देश में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के नारे के बीच बेटियों के साथ इस तरह की ज्यादती हो रही है. और न ही हम राज्य सरकारों के जिम्मेदार लोगों के उन कुतर्कों को तवज्जो देंगे कि इन घटनाओं के लिए पिछली सरकारें जिम्मेदार हैं.
क्योंकि इस सतही आरोप-प्रत्यारोप से न सिर्फ कड़वाहट बढ़ती है, बल्कि बात किसी नतीजे तक भी नहीं पहुंचती. इसमें तो किसी को कोई दोराय नहीं हो सकती कि इस मामले के आरोपियों को कड़ी से कड़ी सजा दी जाए. लेकिन उससे बड़ा सवाल यह है कि यहां की पीड़ित लड़कियों और महिलाओं का पुनर्वास कैसे किया जाए. क्योंकि सामान्यतौर पर अदालतें या स्थानीय प्रशासन किसी तरह के शोषण या उत्पीड़न की सूरत में महिलाओं को नारी निकेतन भेजता है, लेकिन यहां तो उसी जगह पर ही वे शोषण का शिकार हो गईं. जाहिर है घर उन्हें भेजा नहीं जा सकता, क्योंकि अगर कोई घर होता, तो वे इन आश्रय स्थलों में आती ही क्यों.
इन महिलाओं की ऐसी अवस्था हो गई है, जहां उनके पुनर्वास के बारे में हमारे पास सैद्धांतिक रूप से भी कोई जगह बचती नहीं दिखाई दे रही.
इस तरह के मामलों में अक्सर यह देखा जाता रहा है कि महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर जितनी ज्यादा बंदिशें और इंतजाम सरकार द्वारा किए जाते हैं, महिलाएं उतनी ही ज्यादा असुरक्षित होती जाती हैं. क्योंकि यहां उनके शोषण के सूत्रधार बाहर के नहीं भीतर के व्यक्ति होते हैं. और जो इंतजाम महिलाओं की सुरक्षा के लिए किए जाते हैं, ये अंदर के लोग उन इंतजामों का उपयोग महिलाओं के शोषण के फूलप्रूफ शोषण के औजार के तौर पर करते हैं.
इन मामलों में यह भी देखने में आता है कि बहुत से आश्रय संचालक बिना किसी पर्याप्त व्यवस्था के सरकारी मदद के लालच में आश्रय खोल लेते हैं. जबकि वे यहां व्यवस्थाएं नहीं कर पाते. और ज्यादातर मामलों में बहुत कम खर्च पर कर्मचारियों को यहां तैनात करते हैं. कई बार ये कर्मचारी भी कम भरोसेमंद होते हैं.
दूसरी तरफ सरकार की तरफ से चलने वाले आश्रयस्थलों में भी यह देखने में आता है कि वहां के अधिकारी और कर्मचारी लंबे समय तक एक ही जगह पर तैनात रहते हैं. एक जगह तैनात रहने के कारण वे खुद को कर्मचारी या अधिकारी समझने की बजाय वहां का मालिक समझने लगते हैं. और सब लोगों पर हुक्म चलाने की मानसिकता में आ जाते हैं. बाद में इनमें से कई शोषक भी बन जाते हैं.
ऐसे में जरूरत इस बात की है कि देशभर में मशरूम की तरह उगे आश्रयस्थलों की जगह, जिला मुख्यालय पर ही आश्रयस्थल बनाया जाए. इसका आकार बड़ा हो. और इसमें कर्मचारियों को रोटेशन के तरीके से तैनात किया जाए. जरूरत पड़े तो अलग अलग विभाग के कर्मचारियों को रोटेशन पर लाया जाए. कर्मचारियों को एक जगह जमने का मौका न दिया जाए ताकि वे अपने रैकेट न चला सकें.
इसके अलावा हर हाल में जिलाधिकारी या दूसरा कोई सक्षम अधिकारी महीने में कम से कम एक बार महिलाओं से मिले. इस दौरान वह सरकारी नजरिये से देखने के बजाय मानवीय नजरिए से सोचे. जरूरी नहीं कि कोई शिकायत आए तभी वह कार्रवाई करे, उसे चाहिए कि वह लड़कियों के हाव-भाव को भी देखे और समझे कि वे किसी दबाव में तो वहां सब ठीक नहीं बता रही हैं.
बंदिशों के बजाय उन्हें समाज में उठने-बैठने की छूट रहे. ताकि जरूरत पड़ने पर वे अपनी समस्याएं बाहर की दुनिया को भी बता सकें. जरूरत इस बात की है नारी निकतनों को जाल न बनाया जाए, बल्कि भविष्य की संभावनाओं का आश्रय बनाया जाए. अगर इस तरह के सुधार अपनाए गए तो हो सकता है नारी निकेतन नरक निकेतन न बनें.
(लेखक जी न्यूज डिजिटल में ओपिनियन एडिटर हैं, डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)