नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को सरकारी नौकरी में एससी/एसटी समुदाय को प्रमोशन में आरक्षण पर बड़ा फैसला सुनाया. कोर्ट ने 12 साल पहले प्रमोशन में आरक्षण पर दिए फैसले को कुछ बदलावों के साथ बरकरार रखा है. कोर्ट ने कहा कि इस पर फिर से विचार करने की जरुरत और आंकड़े जुटाने की आवश्यकता नहीं है. एक तरह से शीर्ष अदालत ने 2006 के एम नागराज मामले को काफी हद तक बरकरार रखा है.
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राज्य सरकारों के लिए एससी/एसटी वर्ग के पिछड़ेपन और रोजगार में उनकी हिस्सेदारी से जुड़े आंकड़े जुटाना जरूरी नहीं है. इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्यों की दलील मंजूर की है. जबकि नागराज मामले में कोर्ट ने शर्त लगाई थी कि प्रमोशन में आरक्षण से पहले यह देखना होगा कि अपर्याप्त प्रतिनिधित्व है या नहीं.
बता दें कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए 1955 में तत्कालीन जवाहरलाल नेहरू सरकार में संविधान में 77वां संशोधन कर अनुच्छेद 16 में नई धारा 4/ए को जोड़ा गया था. इसी के तहत एससी-एसटी समुदाय को सरकारी नौकरी में वरीयता देते हुए उनका प्रमोशन किया जा सकता था.
इस तरह से सबसे पहले एससी/एसटी समुदाय को 1955 में पदोन्नति में आरक्षण दिया गया था. इसके बाद से लगातार प्रमोशन में आरक्षण मिल रहा था.
हालांकि इंदिरा साहनी से जुड़े 1992 में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया था कि एससी एसटी के मामले में क्रीमीलेयर की शर्त लागू नहीं होगी. इसी का नतीजा है कि एससी एसटी के सभी लोगों को आरक्षण का फायदा मिलता आ रहा है.
लेकिन 2005 में ईवी चेन्नैया मामले में पांच जजों की बेंच की ओर से दिए गए फैसले में आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा एससी-एसटी समुदाय को क्रीमीलेयर और नॉन क्रीमीलेयर में बांटे जाने को असंवैधानिक ठहराया गया था. कोर्ट ने कहा था कि एससी-एसटी के बारे में राष्ट्रपति के आदेश पर जारी लिस्ट में कोई छेड़छाड़ नहीं हो सकती और सिर्फ संसद ही कानून बनाकर बदलाव कर सकती है.
एससी/एसटी समुदाय को मिलने वाले प्रमोशन में आरक्षण की संवैधानिक वैधता को एम नागराज ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। साल 2006 में एम नागराज बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की ही एक संविधान पीठ ने फैसला दिया था कि सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (एससी-एसटी) वर्गों को संविधान के अनुच्छेद 16 (4) और 16 (4ख) के तहत आरक्षण दिया जा सकता है, पर इसके लिए सरकार को कुछ शर्तों को पूरा करना होगा.
शीर्ष कोर्ट ने तब यह भी आदेश दिया था कि एससी-एसटी वर्गों के लिए प्रमोशन में रिजर्वेशन देने से पहले सरकार को इसके लिए यह आंकड़ा जुटाना होगा कि समाज का यह तबका कितना पिछड़ा रह गया है और सरकारी नौकरियों में इनका प्रतिनिधित्व कितना है और अगर इनको प्रमोशन में आरक्षण मिलता है तो इस पहल का सरकार के कामकाज पर क्या फर्क पड़ेगा.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद कई राज्य सरकारों ने बिना आंकड़ा जुटाए ही प्रमोशन में आरक्षण देना जारी रखा. इसी आधार पर 2010 में राजस्थान हाई कोर्ट ने राज्य में एससी/एसटी समुदाय को मिलने वाले प्रमोशन में आरक्षण पर रोक लगा दी. इसके बाद 2011 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी पदोन्नति में आरक्षण के उत्तर प्रदेश सरकार के फैसले को रद्द कर दिया था. इसके बावजूद यूपी की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने दलित समुदाय को प्रमोशन में आरक्षण दिया था. हालांकि, 2012 में यूपी में सत्ता में आई सपा सरकार ने एससी/एसटी समुदाय को प्रमोशन में आरक्षण से हाथ खींच लिए थे.
इसके बाद मध्य प्रदेश सरकार ने भी प्रमोशन में आरक्षण पर रोक लगा दी थी. इसके बाद ये दलित समुदाय के लोग इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट आए, जिस पर बुधवार को ऐतिहासिक फैसला आया है. कोर्ट ने साफ कहा कि राज्य सरकारें चाहें तो प्रमोशन में आरक्षण दे सकती हैं, लेकिन इसके लिए आंकड़े देना जरूरी नहीं है.