उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 497 के साथ-साथ भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 198(2) को असंवैधानिक करार दे दिया है और साथ ही सरकार की दलील कि इससे शादी की पवित्रता को आघात लगेगा और विवाह जैसी संस्था कमजोर होगी को खारिज कर दिया है. हाल ही में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने आईपीसी की धारा 497 को असंवैधानिक करार देते कहा था कि यह औपनिवेशिक अमानवीय क़ानूनों के खत्म करने की शुरुआत भर है, इसके महीने भर बाद ही उच्चतम न्यायालय ने करीब 160 साल पुराने एक और अमानवीय औपनिवेशिक कानून के अंत की कहानी लिखकर अपने इरादे को जता भी दिया है. इस फैसले के बाद एक विवाहित महिला और एक पुरुष के बीच आपसी सहमति से बनाया गया संबंध भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता के तहत अपराध नहीं रह गया है. इससे पहले इस तरह के संबंध में विवाहित महिला के पति की शिकायत पर पुरुष को 5 साल और जुर्माने की सजा हो सकती थी.
याचिकाकर्ता जोसेफ शाइनी ने अपनी याचिका में 497 को इसी आधार पर लैंगिक रूप से भेदभावपूर्ण बताया था. इस याचिका में कहा गया था कि आपसी सहमति से बनाए गए सम्बन्धों में केवल पुरुष के खिलाफ़ ही आपराधिक कार्रवाई का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 यानि कानून के समक्ष समानता के अधिकार का हनन करता है. इसके साथ ही इस अधिनियम के अनुसार अपने पति की सहमति से कोई विवाहित महिला किसी और पुरुष से संबंध बनाती है तो वह अपराध नहीं होगा. इस तरह से 497 एक तरह से पति को पत्नी के मालिक की हैसियत प्रदान करता था. यही नहीं कोई पत्नी, अपने पति की किसी और महिला से संबंध की शिकायत नहीं कर सकती थी, इस आधार से भी यह कानून लैंगिक रूप से भेदभावपूर्ण था.
संविधान पीठ के जजों ने मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा और न्यायाधीश रोहिंगटन नरीमन, ए एम खानविलकर, डी वाई चंद्रचूड़ और इन्दु मल्होत्रा के फैसलों से यही निष्कर्ष मिला है कि आईपीसी 497 संविधान के अनुच्छेद 21 और 14 का उलंघन करता है तथा मानवीय गरिमा और समाज में महिलाओं को बराबरी के अधिकार से वंचित करता है. न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा कि व्यक्ति की स्वायत्तता की भी नागरिक के गरिमापूर्ण जीवन का मूल है और माहिलाओं की पसंद को नकारना पुरुष प्रधान समाज की निशानी है जबकि जस्टिस नरीमन ने सेक्स में स्त्रियों की सहभागिता पर टिप्पणी करते हुए कहा, “यह विचार कि पुरुष हमेशा व्यभिचार की पहल करता है और स्त्रियों हमेशा ही पीड़ित होती हैं- बहुत पुराना हो चुका है. यह महिलाओं की मर्ज़ी और उनकी गरिमा के ख़िलाफ़ है और इसमें पितृसत्ता की बू आती है.”
इस फैसले से ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है कि शादी जैसी संस्था बर्बाद हो जाएगी और परिवार खत्म हो जाएंगे क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने भले ही आईपीसी 497 को असंवैधानिक करार दिया हो लेकिन किसी विवाहित महिला और पुरुष का विवाह से बाहर संबंध स्थापित करना तलाक का आधार बना रहेगा और इस तरह के संबंध के आधार पर अगर जीवनसाथी आत्महत्या करता है तो आईपीसी की धारा 306 के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने के आधार पर मुकदमा दर्ज किया जा सकता है, जिसमें 10 साल की सजा और जुर्माने का प्रावधान है. इस तरह से उच्चतम न्यायालय ने विवाह से बाहर यौन सम्बन्धों को जेंडर न्यूट्रल तो बना दिया लेकिन जीवनसाथी के प्रति यौन सम्बन्धों को लेकर प्रताड़ना के परिणाम को भी साफ कर दिया है. इसलिए सम्बन्धों में बेवफाई के लिए 497 में केस भले न हो सके लेकिन कानून से ज्यादा दबाव हमेशा सामाजिक नैतिकता का रहा है और दूसरी तरफ सम्बन्धों में बेवफाई पर तलाक का रास्ता खुला हुआ है.
ऐसे में यह फैसला एक महत्वपूर्ण फैसला है, जिसमें न्यायालय ने न केवल पुरुषों को एकतरफा आरोपी बनाने के औपनिवेशिक प्रावधान से मुक्ति दिलाई बल्कि महिलाओं को पति के लिए किसी वस्तु या संपत्ति की कानूनी और अमानवीय परिभाषा से बाहर किया है. वैसे भी अगर दो वयस्क लोग अपनी इच्छा से किसी संबंध या पल को जीना चाहते हैं तो कोई राज्य उसमें कैसे हस्तक्षेप कर सकता है? इस तरह के संबंध अनैतिक हो सकते हैं और असामाजिक भी हो सकते हैं, लेकिन इन्हें अपराध मानने पर समाज पीछे की ओर जाएगा न कि आगे की ओर. इस तरह की स्थिति उत्पन्न होने पर पति और पत्नी पर पूरी तरह से छोड़ देना चाहिए कि वे क्या निर्णय लेते हैं? क्योंकि वैवाहिक कानूनी प्रावधानों में पहले से ही कई तरह के विकल्प मौजूद हैं. दरअसल पारिवारिक और वैवाहिक मामलों में जितना अधिक कानूनी हस्तक्षेप बढ़ेगा, रिश्तों की जटिलता और सामाजिक कठिनाइयाँ उतनी ही अधिक बढ़ेगी. इसलिए सरकार और न्यायालय दोनों को चाहिए कि लोगों के निजी पलों और रिश्तों के साथ-साथ लोगों बेहद निजी पसंद और नापसंद में कानूनी दखलांदाजी न करें.
(लेखक स्वतंत्र टिप्णीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)