पिछले कुछ दिन से देश की सबसे बड़ी अदालत एक के बाद एक ऐसे फैसले सुनाती जा रही है, जिनका इस देश के लोकजीवन और सामाजिक तानेबाने पर दूरगामी असर पड़ने वाला है. यह एक सुनियोजित संयोग ही है कि देश के बड़े सवालों पर एक साथ फैसले सुनाए जा रहे हैं. फैसलों के एक ही कालखंड में आने से देश में न्याय महोत्सव जैसा माहौल बन गया है.
ज्यादातर मामलों में फैसला सुनाने वाली पीठ के व्यावहारिक मुखिया भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा ही रहे हैं. वैसे देश के सुप्रीम कोर्ट में दर्जनों विद्वान न्यायाधीश हैं और बहुत सुंदर होता कि इन अहम मुद्दों पर बहुत से न्यायाधीश अपने-अपने फैसले सुनाते. इससे न्याय में बहुलतावाद के दर्शन होते. फैसलों की लिखाई में भाव, भाषा और मीमांसा की विविधता होती. लेकिन ऐसा न होने से इन फैसलों के महत्व और सम्मान में कोई फर्क नहीं पड़ जाता.
समलैंगिकता
इन फैसलों को पलट कर देखें तो सबसे पहला महत्वपूर्ण फैसला समलैंगिकता को लेकर आया. अदालत के फैसले के बाद समलैंगिकता से जुड़ी कानून की धाराएं खत्म हो गईं. फैसले में अदालत ने यह भी कहा कि यह धाराएं ब्रिटिश साम्राज्यवाद की मानसिकता का बोझ थीं. इसी तरह का दूसरा फैसला व्यभिचार को लेकर आया. इस फैसले में अदालत ने कहा कि पति पत्नी का मालिक नहीं है. साथ ही स्पष्ट किया कि अगर कोई पुरुष शादीशुदा महिला से देह-संबंध रखता है तो इस बारे में महिला के पति को हद से हद तलाक लेने का अधिकार है. इस कानून को खत्म करते समय भी अदालत ने साम्राज्यवादी जमाने की कानूनी सोच से मुक्ति की बात कही.
हालांकि यहां इस बात पर जरूर गौर किया जाना चाहिये कि न सिर्फ खत्म किए गए ये कानून, बल्कि देश का बुनियादी कानूनी ढांचा ही साम्राज्यवादी जमाने में बना, क्योंकि उससे पूरे देश में लागू होने वाली कोई लिखित कानून संहिता नहीं थी. इसलिए किसी कानून विशेष को कॉलोनियल माइंडसेट कह देना और बाकियों को प्रगतिशील मान लेना व्यापक वैचारिक विमर्श की गुंजाइश चाहता है. हम इन खत्म किए गए कानूनों को गलत तो कह सकते हैं, लेकिन इसे सिर्फ साम्राज्यवाद का बोझ कहकर कहीं हम उन रूढ़ियों से तो पल्ला नहीं झाड़ रहे जो असल में हमारे समाज की भी देन हैं.
इसकी एक परीक्षा तो यह हो सकती है कि क्या इन कानूनों के खत्म होने के बाद भारतीय समाज ने समलैंगिकों और गैर मर्द के साथ स्वैच्छिक संबंध रखने वाली महिलाओं को बहुत सम्मान देना शुरू कर दिया है. हो सकता है भविष्य में उन्हें सम्मान से देखा जाए. लेकिन फिलहाल इतना तो कहा ही जा सकता है कि ये कानून सिर्फ अंग्रेजों की खब्त नहीं थे, तत्कालीन भारतीय समाज के बहुमत की धारणाओं के अनुकूल थे. जाहिर है आज भारत बदल रहा है और वह अपने रूढ़िवादी कानून भी बदल रहा है.
आधार कार्ड
इस न्याय पर्व में एक फैसला आधार कार्ड के बारे में भी आया. यह फैसला हमारे धार्मिक या पारंपरिक जीवन को प्रभावित करने के बजाय हमारे सार्वजनिक जीवन में अचानक पैदा हो गई नए किस्म की तानाशाही को खत्म करने वाला है. आधार कार्ड में हजारों अच्छाइयां हो सकती हैं, लेकिन यह इतना अच्छा नहीं हो सकता कि इसे भूख, प्यास और सेक्स की तरह मनुष्य की बुनियादी जरूरत बना दिया जाए. जरा सोचिए कि अपनी आध्यात्मिक परंपराओं के लिए पूरी दुनिया में मशहूर देश में फकीरों को भी अगर आधार कार्ड बनाने के लिए विवश किया जाता तो फिर फकीरी के मूल आदर्श का क्या होता. इस देश में तो दिगंबर मुनि और नागा साधु भी रहते हैं, जो शब्दश: हर भौतिक चीज छोड़ चुके हैं. जिनकी पहचान सिर्फ ईश्वर से है, किसी सरकारी मुहर से नहीं है.
इसलिए अदालत ने आधार के बाहर भी दुनिया की संभावनाओं को स्वीकार करके देश को विधिक तानाशाही से काफी हद तक बचा लिया.
प्रमोशन में आरक्षण
इसी दौरान अदालत ने प्रमोशन में आरक्षण को लेकर फैसला सुना दिया. इस फैसले की शुरुआती ध्वनि तो ऐसी लगी जैसे राज्य सरकारों को अपने-अपने राज्य में प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया गया है. लेकिन बाद की रिपोर्ट बता रही हैं कि इसमें एससी-एसटी वर्ग में भी क्रीमी लेयर का कंसेप्ट डाल दिया गया है. क्रीमी लेयर की अवधारणा अब तक अति पिछड़ा वर्ग में तो थी, लेकिन दलित आदिवासी समुदाय के बारे में यह नई बात होगी. इस नए पेंच के बाद यह समझने में जरा वक्त लगेगा कि दलित समाज को तुरंत प्रमोशन में आरक्षण का लाभ मिल पाएगा या उनकी मांग में फिर किंतु-परंतु का पुछल्ला लग जाएगा. बहुत संभव है कि राज्य पहले इसे टालें और घूम फिरकर यह मामला फिर अदालत के पास आ जाए.
मस्जिद, इस्लाम का हिस्सा है या नहीं
आरक्षण के बाद एक अन्य बड़ा फैसला मस्जिद को इस्लाम का अभिन्न अंग मानने को लेकर आया. इस मामले में दो न्यायधीशों ने मस्जिद को इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं माना, जबकि एक न्यायाधीश ने कहा कि यह मामला बड़ी पीठ के पास जाना चाहिए था. अदालत ने 2-1 के फैसले से 1994 के 3-2 से सुनाए गए फैसले को जारी रखा. इस फैसलों को देखकर महात्मा गांधी की याद आती है जो हमेशा आम सहमति की बात कहते थे. और पंडित नेहरू इस देश में लोकतंत्र की जड़ें जमाते समय बार-बार कहते थे कि सबको साथ लेकर चलना है. अगर किसी असहमत व्यक्ति या समूह पर जबरदस्ती कोई फैसला थोप दिया गया तो वह देश के संपूर्ण रक्त में रक्त की एक गंदी बूंद की तरह रह जाएगा. जो धीरे-धीरे पूरे खून को खराब करेगी.
जाहिर है कोई फैसला सबको संतुष्ट नहीं कर सकता, लेकिन असहमति को पूरा सम्मान देने की भावना तो दिखनी ही चाहिए. खासकर तब, जब देश के तीन परमविद्वान व्यक्तियों में से दो एक बात कह रहे हैं और तीसरा दूसरी बात कह रहा हो. और संयोग से जिन परंपराओं पर फैसला सुनाया जा रहा हो, उन परंपराओं का जन्म से पालन वही तीसरा व्यक्ति करता आया हो, जो असहमत हो.
वैसे भी एक सामान्य सवाल मन में आता है कि क्या देश में या दुनिया में इस बात पर कोई बहस छिड़ी हुई थी कि मस्जिद इस्लाम का अभिन्न अंग है या नहीं. क्या भारत के मुसलमान दो हिस्सों में बंट गए थे और वे अदालत से इस बात का फैसला चाहते थे कि वह बताए कि मस्जिद इस्लाम का अभिन्न हिस्सा है या नहीं. ऐसे में 1994 के फैसले को दुहराकर अदालत क्या संदेश देना चाहती है, इसे समझना इतना आसान नहीं है.
सबरीमाला मंदिर में महिलाओं का प्रवेश
देश के मुसलमानों में भले ही इस बात पर बहस न छिड़ी हो कि उनके धर्म में मस्जिद की स्थिति क्या है, लेकिन हिंदू समाज के एक तबके खासकर महिलाओं के एक वर्ग में यह बहस थी कि उन्हें सबरीमाला मंदिर में प्रवेश दिया जाए. सुप्रीम कोर्ट ने 4-1 के फैसले से महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की अनुमति दे दी. हालांकि इस फैसले की दिलचस्प बात यह रही कि अनुमति के खिलाफ मत व्यक्त करने का काम एक महिला न्यायाधीश ने किया, जबकि महिलाओं के प्रवेश को उचित ठहराने वाले सभी न्यायाधीश पुरुष थे.
इस तरह से, आधार वाले फैसले को छोड़ दें तो बाकी सारे फैसले कहीं न कहीं भारत की सामाजिक और धार्मिक व्यवस्थाओं पर असर डालने वाले हैं. इन फैसलों से लैंगिक अल्पसंख्यक, धार्मिक अल्पसंख्यक, दलित-आदिवासी समाज और महिलाएं मुख्य रूप से प्रभावित होने वाली हैं. इसलिए पिछले कुछ दिन से चल रहे न्याय महोत्सव को भारत के वंचित तबके से जुड़ा न्याय महोत्सव भी कहा जा सकता है. हां, यह बात जरूर देखनी होगी कि क्या वह वंचित तबका संपूर्ण रूप से इस न्याय महोत्सव का जश्न मना पाएगा या नहीं. अगर इस उत्सव के बीच उसके मन में कोई खलिश रह गई हो, तो उसे वापस न्याय की इसी चौखट तक वापस आने का अधिकार है और यहां संतुष्टि न हो तो संसद को नए कानून बनाने का अधिकार है. आखिर सहमति और असहमति के द्वंद्व के बीच ही तो लोकतंत्र धीरे-धीरे आगे बढ़ता है.
(लेखक पीयूष बबेले जी न्यूज डिजिटल में ओपिनियन एडिटर हैं)
(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)