दिनेश पाठक
नाम मुलायम था लेकिन कड़े फैसले लेने से चूकते नहीं थे. वे आम जनता की नब्ज को पकड़ना जानते थे. उनके फैसले लोगों को चौंकाते भी थे. कई फैसलों पर अपनों ने भी सवाल उठाए लेकिन वे हर फैसला सोच-समझ कर ही लेते थे. वे किसान, जवान, मुसलमान सबका ख्याल अपने तरीके से रखने के लिए जाने जाते थे. पार्टी में जब तक वे सक्रिय थे, तब तक सभी जाति-धर्म के लोगों को शीर्ष नेता के रूप में जगह देते थे. यारों के यार के रूप में उनकी पहचान रही. धरती पुत्र, मुल्ला मुलायम, नेताजी जैसी उपाधियां भी उन्हें अलग-अलग मौकों पर मिलीं.
22 नवंबर 1939 को इटावा जिले के सैफई गांव में एक किसान परिवार में पैदा हुए मुलायम सिंह यादव ने शिक्षक के रूप में अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत की लेकिन मन राजनीति में रमा और साल 1967 में वे जसवंतनगर से पहली दफा विधायक बनकर विधान सभा पहुंचे. वहां से शुरू उनका राजनीतिक सफर बेहद शानदार रहा. जीवन में कठिनाइयां भी आईं लेकिन वे उससे भी लड़े.
हर दल में उनकी पकड़ थी. मंचों पर उन्हें बुरा कहने वाले लोग भी बंद कमरों या व्यक्तिगत मुलाकातों में बहुत आदर करते थे. मुलायम व्यक्तिगत रिश्तों को बहुत तरजीह देते और कई बार पार्टी लाइन से अलग हटकर फैसले लेते देखे गए. कई बार सांसद, विधायक, तीन बार सीएम, देश के रक्षा मंत्री रहे मुलायम सिंह यादव की जिंदगी के कुछ कड़े फैसले जानना चाहिए.
जब अयोध्या में आंदोलित कारसेवकों पर चलवाई गोलियां
50 साल की उम्र में पहली दफा उत्तर प्रदेश जैसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री बने. केंद्र में वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल की सरकार थी. राज्य में भी जनता दल की सरकार का नेतृत्व मुलायम खुद कर रहे थे. तब समाजवादी पार्टी का नामोनिशान भी नहीं था. मंडल-कमंडल का दौर था. देश में बड़ी उथल-पुथल चल रही थी. इस दौरान वीपी सिंह की सरकार गिर गई. कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर पीएम बने. मुलायम ने पाल बदलकर सरकार बचा ली.
यह उनका पहला दांव था, जब उन्होंने लीक से हटकर फैसला लिया. यहां से बचे तो 1990 में अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया. कई कारसेवक मारे गए. हिंदूवादी संगठनों ने उन्हें मुल्ला मुलायम कहकर संबोधित करना शुरू किया.
वह बेहद कठिन समय था और यह फैसला भी कठिन था लेकिन मुलायम सिंह ने लिया. इस एक फैसले से वे मुसलमानों की अत्यधिक प्रिय नेता हो गए और फिर साल 1992 में समाजवादी पार्टी का उदय हुआ और उसके बाद की यात्रा को देश ने देखा.
सोनिया के विदेशी मूल का मुद्दा भी उठाया, यूपीए सरकार को संकट से भी उबारा
अटल बिहारी वाजपेई की सरकार एक वोट से गिर गई. राजनीतिक पंडितों का मानना था कि सोनिया गांधी और जयललिता में हुई आपसी समझ से यह सरकार गिर गई. यह बात फैली कि सोनिया को पीएम बनाने की कोशिश हो रही है. इसमें कुछ और दल शामिल हैं. तब भाजपा ने विदेशी मूल का मुद्दा उछाल दिया. मुलायम सिंह ने उस मुद्दे को हवा दी. देखते हई देखते शरद पवार, पीए संगमा जैसे नेताओं ने भी इस मुद्दे को हवा दी और कांग्रेस दूरी बना ली.
उसी मुलायम ने यूपीए की पहली सरकार को संकट से उबार लिया जिसकी सोनिया गांधी चेयरपर्सन थी. अमेरिका से परमाणु करार के मुद्दे पर वामदलों ने समर्थन वापस ले लिया तब अक्सर वामदलों का साथ देने वाले मुलायम सिंह ने बाहर से समर्थन देकर यूपीए सरकार को बचा लिया था. सोनिया के विदेशों मूल का मुद्दा उछालना हो या यूपीए सरकार को बचाना, मुलायम के ये दोनों फैसले उनके अपने लोगों की समझ से भी उस जमाने में बाहर थे. पार्टी लाइन से अलग होने की वजह से उनके इस सख्त फैसले से सब भौंचक थे.
अमर, आजम खान और रामगोपाल यादव जैसे प्रिय नेताओं को पार्टी से बाहर किया
जो लोग मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी को जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि रामगोपाल यादव, अमर सिंह और आजम खान जैसे नेता उनके लिए कितने महत्वपूर्ण रहे हैं. पर, इन तीनों ही लोगों को अलग-अलग समय पर और अलग-अलग कारणों से उन्होंने पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. राम गोपाल और आजम खान की तो वापसी भी हुई लेकिन अमर सिंह से फिर वह रिश्ता न बन पाया, जो पहले था. उसके भी अपने कारण थे.
फिल्म अभिनेत्री जया प्रदा साल 2009 में रामपुर से चुनाव लड़ रही थीं. अमर सिंह उनके साथ साये की तरह थे. आरोप लगे कि इस चुनाव में आजम खान ने उनकी खिलाफत की. अमर सिंह का प्रभाव इतना था कि मुलायम सिंह ने आजम खान को पार्टी से बाहर कर दिया. आगे ही साल अमर सिंह भी बाहर हो गए. ये दोनों फैसले ऐसे थे, जो जमाने की नजर में बेहद कड़े थे लेकिन मुलायम ने सबको चौंकाया. हालांकि, बाद में आजम खान की वापसी हुई. बेहद भरोसेमंद सिपाही और समाजवादी पार्टी के प्रभावशाली नेता राम गोपाल यादव भी पार्टी से बर्खास्त हुए. उस समय समाजवादी पार्टी में अंदरूनी विवाद चरम पर था. हालांकि, फिर उनकी वापसी भी हुई.
उधर फैसला लेते गए, इधर राजनीति में कद बढ़ता गया
साल 1967 में विधायक बने ही थे कि राम मनोहर लोहिया का निधन हो गया. सोशलिस्ट पार्टी कमजोर पड़ने लगी. देश और राज्य में सियासी हालात तेजी से बदल रहे थे. चौधरी चरण सिंह और उनकी पार्टी का प्रभाव बढ़ रहा था. मुलायम ने वह पार्टी छोड़ दी, जिसके टिकट पर पहली बार विधायक बने थे. वे चरण सिंह के साथ आ गए. यह फैसला उनके जीवन में इतना बड़ा साबित हुआ कि उन्हें चरण सिंह का राजनीतिक वारिस कहा जाने लगा.
मुलायम नए थे राजनीति में लेकिन फैसले सधे हुए लेते थे. कांग्रेस के खिलाफ देश में माहौल बन रहा था तो मुलायम भी जेपी आंदोलन में कूद पड़े. इमरजेंसी में जेल गए. वहां से निकले तो और निखर गए. 1977 में यूपी में जनता दल की सरकार बनी तो मुलायम मंत्री बने. एक समय ऐसा था कि लोक दल में अजीत सिंह की हैसियत मुलायम सिंह से कम हो गई और पहली बार यूपी के सीएम बन गए.
बेटे अखिलेश यादव को यूपी का सीएम बनाकर सबको चौंकाया
सपा प्रमुख अखिलेश उस समय सांसद थे. साल 2012 के चुनावों में उनका कोई खास प्रभाव नहीं देखा गया था. यह चुनाव पूरी तरह से मुलायम सिंह यादव और उनके वरिष्ठ साथियों के नेतृत्व में लड़ गया था. राजनीतिक हवा कुछ ऐसी भी कि समाजवादी पार्टी को बहुमत मिल गया. उस समय बहुजन समाज पार्टी की राज्य में सरकार थी और मायावती पूर्ण बहुमत वाली सीएम. पर वे अपनी सरकार न बचा पाईं.
शपथ ग्रहण की तैयारियां शुरू हो गईं. किसी के मन में मुलायम के अलावा कोई दूसरा नाम न तो था, न ही कोई सोच पा रहा था. पर, अचानक उन्होंने सांसद बेटे अखिलेश यादव को सीएम बनाने का फैसला करके पहले पार्टी नेताओं और फिर बाद में देश को बता दिया. यहीं से वे धीरे-धीरे नेपथ्य में चले गए. अखिलेश के कई फैसलों से सहमत-असहमत होते हुए भी साथ खड़े रहे.
ऐसे ही थे मुलायम सिंह यादव. इसीलिए उन्हें जमीनी नेता कहा जाता था. दूरदर्शी माना जाता था. जिस तरह उनकी सेहत खराब हुई, अगर वे यह फैसला न लेते तो अखिलेश के लिए राजनीतिक राह आसान न होती.