प्रवीन स्वामी
अभी 1997 की सर्दियां खत्म नहीं हुई थीं, करगिल की ऊंची पहाड़ियों पर पाकिस्तानी फौजियों की लाशें बिखरी पड़ी थीं और इसी बीच प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने उस शख्स को बर्खास्त कर जो मुल्क को बर्बादी के इस जंग में घसीट लाया था, लेफ्टिनेंट जनरल ख्वाजा जियाऊद्दीन को अपना नया आर्मी चीफ बनाया. बहरहाल, ऐन वक्त पर एक मुश्किल आन खड़ी हुई: किसी के पास वो ब्रास-स्टार ना था जिसे जनरल जियाऊद्दीन के कंधों पर पहले से जड़े तीन सितारों के बीच टांका जा सके. इस मौके के गवाह रहे लोगों को बखूबी याद है कि उस घड़ी ब्रिगेडियर जावेद मलिक ने बड़ी बहादुरी के साथ अपने यूनिफार्म का एक सितारा तोड़ा और जरूरत के मद्देनजर हवाले कर दिया.
एक मुश्किल और थी लेकिन यह मुश्किल कुछ कम आसानी से हल हुई: जेनरल परवेज मुशर्रफ जिन्हें उस 12 अक्तूबर के रोज बर्खास्त किया गया था, वापस पाकिस्तान लौटे और प्रधानमंत्री को जेल में डाल दिया. पाकिस्तानी फौज को यह कत्तई गवारा ना था कि उसकी तकदीर का फैसला कोई गैर फौजी करे.
पाकिस्तान की हुक्मरानी हासिल नहीं होगी
आज जब प्रधानमंत्री इमरान खान नया पाकिस्तान बनाने के वादे के साथ ओहदा संभाल रहे हैं तो बीते वक्त के उस वाकए के सबक पर गौर करना जरूरी है. सबसे मानीखेज एक बात तो यह निकलती है कि इमरान खान का सियासत की ऊंचाइयां चढ़ना किसी खास बदलाव का संकेत नहीं है. वे प्रधानमंत्री भले बन जाएं लेकिन पाकिस्तान की हुक्मरानी उन्हें हासिल नहीं होने वाली. पाकिस्तान में चुनाव होते रहेंगे और लोकतांत्रिक रीति से सत्ता का बदलाव भी नजर आता रहेगा लेकिन वहां असली ताकत फौज के जनरलों के हाथ में रहेगी.
इतिहासकार एपीजे टेलर ने 1848-1849 की क्रांतियों के बारे में विचार करते हुए यह मशहूर वाक्य लिखा था कि जर्मनी का इतिहास बदलाव के मोड़ पर तो पहुंचा लेकिन वहां से मुड़ने में नाकाम रहा. वह मुल्क आगे बढ़ता रहा लेकिन उसके कदमों की यह बढ़वार दूसरे विश्वयुद्ध की तरफ थी जिसने जर्मनी को एक सिरे से तबाह कर दिया.
अपनी किस्मत के नए सबेरे का जितना ऐलान पाकिस्तान ने सुना है उतना शायद ही किसी मुल्क ने सुना हो. इमरान खान का नया पाकिस्तान का वादा ऐसे ही ऐलानों के सिलसिले की नई कड़ी है. साम्राज्यवादी जर्मनी की तरह पाकिस्तान भी बदलाव के अपने हर मुकाम पर पैर अड़ा थमकर खड़ा रह गया है. बेशक इमरान खान भी जानते हैं जिस मुल्क की अगुवाई की सौगंध आज वे उठाने जा रहे हैं दरअसल उस मुल्क की हुक्मरानी की बागडोर उनके हाथ में नहीं रहेगी.
जरदारी की सरकार ने डाला था फौज पर दबाव
एक तरह से देखें तो इमरान खान का सियासी उभार 2010 में शुरू हुआ जब राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने पाकिस्तान के संविधान के 18वें संशोधन पर अपनी मंजूरी के दस्तखत किए और संसद को भंग करने का राष्ट्रपति का अधिकार इस संशोधन के जरिए खत्म कर दिया गया. सैन्य-शासक जनरल जियाउल हक ने 8वें संशोधन के जरिए राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया था और इस तरह उन तमाम निर्वाचित राजनेताओं को सिरे से बर्खास्त कर देने का हक अपने हाथ में कर लिया था जिनका इस्तेमाल वे अपने शासन को जायज बताने के लिए किया करते थे. नवाज शरीफ ने संविधान की इस व्यवस्था को खत्म किया लेकिन जनरल मुशर्रफ ने उसे फिर से लागू कर दिया था.
जरदारी के वक्त हुए संशोधन ने पाकिस्तान की सियासी जिंदगी में फौज के दबदबे पर हमला बोला: अदालत के सामने अब यह बाधा नहीं रही कि वह संविधान के स्थगन के फैसले पर हामी भरे, जजों की नियुक्ति का अधिकार एक आयोग के हवाले कर दिया गया और राष्ट्रपति को ये अधिकार ना रहा कि वह किसी सूबे में अपनी मनमर्जी से आपात्काल लागू करने का ऐलान कर दे.
जरदारी की सरकार ने फौज के जनरलों को पहले भी नाराज किया था. जरदारी के वक्त में रणनीतिक अहमियत की नीतियों को नई दिशा में मोड़ा गया. राष्ट्रपति के रूप में जरदारी ने वादा किया था कि 26/11 के दोषियों को कानून के कठघड़े में खड़ा किया जाएगा, भारत के खिलाफ जारी आतंकवाद पर लगाम कसी जायेगी और कश्मीर में अमन कायम करने की दिशा में कदम बढ़ाए जाएंगे. जरदारी ने खुले तौर पर यह भी कहा कि वो इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस डायरेक्टोरेट (आईएसआई) को जनता की चुनी हुई सरकार के नियंत्रण में रखना चाहते हैं- एक एजेंसी के रूप में आईएसआई पाकिस्तान की सीमाओं पर ढंके छिपे ना सिर्फ जंग छेड़े रहती है बल्कि अपने मुल्क की सियासत में भी सेंधमारी का काम किया करती है.
‘पाकिस्तान की फौज भारत को ध्यान में रखकर बनाया गया है’
साल 2010 के बाद से आर्मी चीफ परवेज कियानी ने जियाउल हक की हत्या के बाद कायम हुई उस व्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने की कवायद की जिसे विद्वान और राजनयिक हुसैन हक्कानी ने ‘दूसरे जरिए से फौजी शासन’ कायम करने की तरकीब करार दिया है.
विद्वान हसन अस्करी रिजवी ने लिखा है कि आर्मी चीफ सियासी सरंजाम की धुरी था और रिजवी के मुताबिक, आर्मी चीफ को ताकत फौजी टुकड़ियों के कमांडरों से मिला करती थी जो ‘सुरक्षा, संगठन और पेशेवर मामले ही नहीं बल्कि घरेलू मसलों पर भी नजर रखते और उन्हें सुलझाया करते थे’.
साल 2010 की मई में पाकिस्तान के रक्षामंत्री चौधरी अहमद मुख्तार ने कहा कि सरकार ने ना तो चीफ ऑफ आर्मी स्टॉफ को कार्यकाल का कोई एक्सटेंशन दिया है और ना ही जनरल ने ही ऐसी अर्जी दी है कि उनका कार्यकाल बढ़ाया जाए. लेकिन रक्षामंत्री के ऐसा कहने के हफ्ते भर के बाद ही मीडिया में खबर आई कि चीफ ऑफ आर्मी स्टॉफ के कार्यकाल को बढ़ाने के लिए कॉर्प्स कमांडरों का एक सम्मेलन होने जा रहा है और हुआ भी ऐसा ही.
राष्ट्रपति जरदारी ने शुरुआती तौर पर कोशिश की थी कि आईएसआई नागरिक सरकार के अंकुश में रहे लेकिन परवेज कियानी ने इन कोशिशों में अड़ंगा लगाया. भारत के साथ रिश्ते सुधारने के जरदारी के प्रयास को भी कियानी ने झटका दिया. पाकिस्तान के राष्ट्रपति के रूप में आसिफ अली जरदारी ने 2008 के अक्तूबर में अपने एक मशहूर इंटरव्यू में कहा था कि ‘भारत कभी भी पाकिस्तान के लिए खतरा नहीं है.’
इस वाकये के अभी दो साल भी ना बीते होंगे कि 2010 की फरवरी में जनरल कियानी ने कहा कि पाकिस्तान की फौज तो बनाई ही गई है भारत को ध्यान में रखकर और जमीनी ‘सच्चाई उस वक्त तक नहीं बदलने जा रही जबतक कि कश्मीर का मसला और पानी के बंटवारे से जुड़े झगड़े निबटा नहीं लिए जाते.’
फिर आया 2011 के फरवरी का महीना जब अमेरिकी सेना ने धावा बोला और अल कायदा का चीफ ओसामा बिन लादेन मारा गया. पाकिस्तान की फौज भीतर से डर गई कि कहीं आसिफ अली जरदारी इस मौके का इस्तेमाल अपनी पकड़ मजबूत बनाने में ना करे लें. पाकिस्तानी फौज ने जरदारी के साथियों, खासकर वाशिंग्टन स्थित तत्कालीन पाकिस्तानी राजदूत हुसैन हक्कानी के खिलाफ अभियान छेड़ा और आरोप लगाया कि सरकार राजद्रोह पर उतारू हो गई है.
जरदारी ने संयम बरता और तनाव को ज्यादा तूल देने की कोशिश ना करते हुए अपनी सुधार योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया. आने वाले वक्त में उन्होंने चुपचाप प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के हाथों में सत्ता सौंप दी.
नवाज शरीफ और सेना की तकरार
अपने पूर्ववर्ती आसिफ अली जरदारी की तरह नवाज शरीफ भी भारत के साथ रिश्ते सुधारने का संकल्प लेकर सत्ता में आए थे. सत्ता की बागडोर थामने के तुरंत बाद साल 2013 में सीएनएन-आईबीएन को दिए गए एक इंटरव्यू में नवाज शरीफ ने उन सारी बातों का वादा किया जिसकी भारत ने उनसे उम्मीद लगा रखी थी. उन्होंने वचन दिया कि पाकिस्तानी सरजमीं का इस्तेमाल भारत के खिलाफ किसी आतंकवादी गतिविधि को अंजाम देने में नहीं होगा. उन्होंने यह भी कहा कि मैं उन आरोपों पर गौर करूंगा जिनमें कहा गया है कि 26/11 के हमले में आईएसआई का हाथ था. साथ ही, उन्होंने करगिल की जंग से जुड़ी तमाम जानकारियों का खुलासा करने का वादा किया.
नवाज शरीफ को कुछ बातों का श्रेय देना पड़ेगा क्योंकि उन्होंने अपने वादे को पूरा करने की कोशिश में कदम बढ़ाए: कश्मीर में भारतीय फौज पर जेहादियों के हमले में 2014 तथा 2015 में कमी आई, इंडियन मुजाहिद्दीन सरीखे आतंकी जमातों पर लगाम लगा और उन्होंने ईमान का साथ देते हुए साफ कहा कि पठानकोट हमले का दोषी जैश-ए-मोहम्मद है, वादा किया कि उसके खिलाफ कार्रवाई होगी.
लेकिन आखिर को कहानी की इबारत वैसी ही रही जैसी कि 2010 के बाद थी. नवाज शरीफ ने प्रधानमंत्री के रूप में जनरल कमर जावेद बाजवा को चुना था लेकिन बाजवा ने आखिर को अपनी संस्था (फौज) के हितों का ही साथ दिया. कार्प्स कमांडरों ने दबाव डाला और दबाव में झुकते हुए बाजवा ने सुनिश्चित किया कि कश्मीर सहित पूरे भारत में आतंकी जमातों की करतूतें जारी रहें. पठानकोट की घटना के बाद आईएसआई ने यह सुनिश्चित किया कि भारत जिन लोगों को दोषी बता रहा है उनकी गिरफ्तारी ना हो.
फौजी जनरलों ने नवाज शरीफ की सत्ता को मिल रही सियासी चुनौतियों का एक सिरे से साथ दिया और यह सिलसिला आगे बढ़कर एक ऐसे चुनाव तक पहुंचा जिसमें बाकी पार्टियों के खिलाफ सेना ने खुलेआम बाधा खड़ी करने की जुर्रत की, नवाज शरीफ के खिलाफ विवादास्पद कानूनी कार्रवाई हुई. इस बार के चुनाव में साफ जाहिर था कि सत्ता की चाबी मतदाताओं के नहीं बल्कि जनरलों के हाथ में है.
जो सेना से पंगा लेते हैं, वो सत्ता नहीं चला सकते
हालांकि प्रधानमंत्री इमरान खान से उम्मीद नहीं की जाती कि उन्होंने बीते इतिहास पर गौर फरमाया होगा लेकिन उन्हें यह बात तो पता चलनी ही है कि जो राजनेता सेना से पंगा लेते हैं वे अपने सियासी सफर में बेहतर नहीं कर पाते. साल 1990 में प्रधानमंत्री शरीफ जियाउल हक के कंधे पर सवार होकर सत्ता में आए थे, वादा ये था कि इस्लामी ढर्रे की राजव्यवस्था बनाएंगे. लेकिन 1993 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति ने लेफ्टिनेंट जनरल रेहमदिल भट्टी, मोहम्मद अशरफ, फराख खान और आरिफ बंगश जैसों को बाद देते हुए जनरल वाहिद कक्कड़ को आर्मी चीफ बनाया. नवाज शरीफ के पांव खींच दिए गए और सत्ता की बागडोर उनके हाथ से निकल गई.
फिर आया 1998 का वक्त जब अपने लहजे और जबान की नरमी के लिए मशहूर जनरल जहांगीर करामात ने मांग रखी कि एक राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् बनायी जाए जो जनता की चुनी हुई सरकार और फौज के आपसी रिश्तों को लेकर फैसले लिया करेगी लेकिन नवाज शरीफ ने उन्हें बर्खास्त कर दिया. इसके बाद लेफ्टिनेंट जनरल अली कुलीखान तथा लेफ्टिनेंट जेनरल खालिद नवाज खान को बाद देते हुए नवाज शरीफ ने अपने मनचीते जेनरल परवेज मुशर्रफ को आर्मी चीफ चुना और यह सिलसिला करगिल की जंग के बाद आखिर को तबाही के एक मुकाम तक पहुंचा.
यों आम सहमति इस बात को लेकर रहती है कि पाकिस्तानी सेना में दो फिरके हैं. एक फिरका इस्लामपंथियों का है तो दूसरा पश्चिमी मुल्कों के हिमायतियों का और पाकिस्तान फौज के भितरखाने इन दोनों फिरकों के बीच तनातनी चला करती है. लेकिन जैसा कि आयशा सिद्दीक सरीखे विद्वानों ने अपने विश्लेषण में दिखाया है, दरअसल पाकिस्तान में फौज खुद ही एक आजाद सियासी किरदार है और यह फौज कुछ ठोस हितों की नुमाइंदगी करती है: पाकिस्तान में सेना सबसे बड़ी जमींदार है, जमीन के एक बहुत बड़े हिस्से पर उसका मालिकाना है, सेना अपना उद्योग भी चलाती है और यह उद्योग एक साम्राज्य सरीखा है जिसमें नाश्ते की पोहा-भुजिया तैयार करने की फैक्ट्रियों से लेकर बैंक चलाने तक के तमाम काम शामिल हैं.
पाकिस्तान में सेना वहां की राजसत्ता की विचाराधारा की जमीन बचाए-बनाए रखने और मुल्क की सरहद की हिफाजत करने भर की भूमिका नहीं निभाती, दरअसल एक गहरे अर्थ में देखें तो पाकिस्तान में सेना खुद ही राजसत्ता है.