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आंकड़े बताते हैं कि हमारी उच्च शिक्षा व्यवस्था एक भयानक संकट में फंसी हुई है

नई दिल्ली। 72वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर भाषण देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत के दुनिया की छठवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने को एक बड़ी उपलब्धि के रूप में देशवासियों के सामने रखा था. इससे पहले मोदी सरकार ने साल 2022 तक ‘नया भारत’ बनाने का लक्ष्य भी तय किया है. जाहिर है कि इस सपने के साकार होने की बुनियाद देश की वह 86 करोड़ की कार्यशील आबादी है, जिसकी आयु 15 से 64 साल के बीच है. इस आबादी में भी 20 से 30 साल की आयुवर्ग का हिस्सा सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि उसका ज्यादा से ज्यादा कार्यकुशल होना ही भारत का बेहतर भविष्य सुनिश्चित करेगा और इसके लिए जरूरी है, देश के उच्च शिक्षा क्षेत्र का पर्याप्त रूप से सक्षम होना. अब यदि हम इस लिहाज से उच्च शिक्षा से जुड़े कुछ आंकड़े देखें तो वे निराश करने वाले ही ज्यादा लगते हैं.

इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट के मुताबिक केंद्रीय विश्वविद्यालयों के छात्र 5,606 शिक्षकों की कमी से जूझने के लिए मजबूर हैं. यह संख्या शिक्षकों के कुल पदों का 33 फीसदी है. इस बात की जानकारी 23 जुलाई को केंद्रीय मंत्री सत्यपाल सिंह ने लोक सभा को दी थी. वहीं, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) में यह आंकड़ा 34 फीसदी है.

विश्वविद्यालयों/शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षक | साभार : इंडियास्पेंड
                                                                                          विश्वविद्यालयों/शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षक | 

इस बारे में हैदराबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर के लक्ष्मीनारायण इंडियास्पेंड से बात करते हुए कहते हैं, ‘बीते 15-20 वर्षों में विश्वविद्यालयों पर ध्यान नहीं दिया गया. शिक्षकों की नियुक्तियां नहीं हो रही हैं. अधिकांश पद खाली है. जब विश्वविद्यालयों में शिक्षक नहीं होंगे तो शिक्षा की गुणवत्ता निचले स्तर पर होगी.’ इसके आगे उन्होंने अंशकालिक (एड-हॉक) शिक्षकों की नियुक्ति पर भी सवाल उठाया. प्रोफेसर के लक्ष्मीनारायण का कहना है, ‘स्थायी शिक्षकों के पास शोध के लिए वक्त और जिम्मेदारी होती है. साथ ही, उन्हें नौकरी की चिंता भी नहीं सताती. लेकिन, फिलहाल पूरी व्यवस्था ही अंशकालिक शिक्षकों पर आधारित है.’

भारत में अमूमन एड-हॉक शिक्षकों को चार महीने से एक साल तक के लिए ठेके पर रखा जाता है. प्रोफेसर के लक्ष्मीनारायण इस बारे में बताते हैं, ‘सरकार कहती है कि प्रोफेसरों की नियुक्ति करने के लिए उसके पास पैसे नहीं हैं. इसलिए, विश्वविद्यालय एक लाख से 1.5 लाख (प्रति माह) पर एक स्थायी शिक्षक रखने की जगह तीन-चार शिक्षक रख लेता है.’

साल दर साल वैश्विक स्तर पर शीर्ष भारतीय संस्थानों की रैंकिंग | साभार : इंडियास्पेंड
                                                                                         साल दर साल वैश्विक स्तर पर शीर्ष भारतीय संस्थानों की रैंकिंग | 

वहीं, दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर नाम गोपनीय रखने की शर्त पर बताते हैं कि केंद्रीय मानव संसाधन और विकास मंत्रालय से शिक्षकों की नियुक्ति प्रक्रिया को मंजूरी नहीं मिल रही है. दूसरी ओर, केंद्र सरकार का कहना है कि शिक्षकों की नियुक्ति विश्वविद्यालयों के नियंत्रण में है. साथ ही, मंत्रालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) इस पर निगरानी नहीं रखते. बीते महीने केंद्रीय मानव संसाधन और विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने लोक सभा को बताया है, ‘शिक्षकों के पद खाली होना और इन्हें भरना एक लगातार होने वाली प्रक्रिया है. विश्वविद्यालय, शिक्षकों के खाली पदों को भरने के लिए स्वायत्त हैं.’

लेकिन, इस बारे में केंद्र द्वारा विश्वविद्यालयों को स्वायत्त बताने के बाद भी फंड की कमी एक बड़ी समस्या है. भारत में शिक्षा पर कुल जीडीपी का करीब चार फीसदी खर्च किया जाता है. वहीं, शोध कार्यों के लिए यह आंकड़ा एक फीसदी से भी कम है. दूसरी ओर, विकसित देशों में जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा शिक्षा और शोध पर खर्च किया जाता है. इसके नतीजे दुनिया के शीर्ष शैक्षणिक संस्थानों की सूची में भी दिखाई देते हैं. साल 2018-19 के शीर्ष 100 संस्थानों में अमेरिका की 51 शैक्षणिक संस्थाएं शामिल हैं. वहीं, शीर्ष भारतीय संस्थान के रूप में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस 420वें पायदान पर है. साथ ही, चिंता की यह बात भी है कि शीर्ष भारतीय संस्थान की रैंकिंग साल दर साल कम होती जा रही है.

अलग-अलग देशों में शिक्षा पर खर्च (2014) | साभार : इंडियास्पेंड
                                                                                                         अलग-अलग देशों में शिक्षा पर खर्च (2014) |

हालांकि इस बीच मानव संसाधन और विकास मंत्रालय में उच्च शिक्षा सचिव आर सुब्रमण्यम का एक आश्वासन उम्मीद की वजह देता है. उनके मुताबिक सरकार उच्च शिक्षा के लिए अधिक रकम आवंटित करने की तैयारी में है. साथ ही, शोध पर भी अधिक ध्यान दिया जाएगा, जिससे भारतीय विश्वविद्यालय वैश्विक स्तर पर अन्य शीर्ष संस्थानों के मुकाबले में खड़े हो पाएं.

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