नई दिल्ली। आगामी 2019 लोकसभा को लेकर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) अभी से तैयारियों में जुट गई है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जहां 15 अगस्त पर लाल किले के प्राचीर से दिए गए भाषण में चुनाव प्रचार की शुरुआत कर दी है, वहीं पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ताबड़तोड़ अलग-अलग राज्यों के दौरे कर रहे हैं. लोकसभा सीटों के लिहाज से सबसे बड़े उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की संभावित गठबंधन से बीजेपी के लिए खड़ी हुई मुश्किल को देखते हुए अमित शाह ने दूसरे राज्यों पर फोकस करना शुरू कर दिया है. बीजेपी की अब तक की प्लानिंग पर नजर डालें तो पता चलता है कि वह यूपी में होने वाले संभावित नुकसान की भरपाई दूसरे राज्यों से करने की तैयारी में है. इस हिसाब से पश्चिम बंगाल बीजेपी के लिए बेहद अहम राज्य है.
वामदलों के कमजोर होने के बाद पश्चिम बंगाल की राजनीति में जो जगह खाली हुई है उसमें बीजेपी विकल्प बनना चाह रही है. हाल के दौर में हुए चुनाव के रिजल्ट पर नजर डालें तो स्पष्ट है कि वोटों के हिसाब से बीजेपी पश्चिम बंगाल में दूसरी बड़ी पार्टी है. ऐसे में तय है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में राज्य की सत्ता पर काबिज तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी के बीच मुख्य मुकाबला देखने को मिलेगा. बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने पार्टी की राज्य ईकाई के साथ बैठक में कहा है कि वह पश्चिम बंगाल की 42 में से 22 सीटें जीतना चाहते हैं. उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं से अपील की है कि वे इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर कार्य करें.
बीजेपी की ओर से निर्धारित इस लक्ष्य पर राजनीति के जानकार मानते हैं कि इसे पाना इतना आसान नहीं होगा. हालांकि यह भी माना जा रहा है कि पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी अब तक कई असंभव लक्ष्य को पार कर चुकी है. चलिए ये तो 2019 में लोकसभा चुनाव का रिजल्ट आने के बाद पता चल पाएगा कि बीजेपी इस लक्ष्य को छू पाती है या नहीं. उससे पहले समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर बीजेपी के सामने पश्चिम बंगाल का किला फतह करने में क्या मुश्किल आ रही है.
बीजेपी के पास नहीं है ममता के बराबर के कद का नेता
पश्चिम बंगाल बीजेपी के वोट प्रतिशत में भारी उछाल आया है. विधानसभा चुनाव परिणामों को आधार मानें तो बीजेपी पांच-सात फीसदी से बढ़कर 23 फीसदी वोटों वाली पार्टी बन गई है. इन सबके बीच बीजेपी के पास पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के कद का कोई नेता नहीं है. ममता बनर्जी के सामने चेहरा खड़ा करने के लिए बीजेपी अब तक कई प्रयोग कर चुकी है, लेकिन वे उतने प्रभावी साबित नहीं हो पाए हैं. विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी ने सुभाष चंद्र्र बोस के पड़पोते चंद्रकुमार बोस के चेहरे को आगे करके मैदान में उतरे थे, लेकिन असफल साबित हुए थे.
इसी कमी की भरपाई को पूरा करने के लिए बीजेपी ने ममता बनर्जी के सबसे करीबी नेताओं में से एक मुकुल रॉय को अपने साथ लिया है. अब तक मुकुल रॉय के रोल पर नजर डालें तो वे ममता बनर्जी के कद के सामने प्रभावी छाप नहीं छोड़ पाए हैं. टीएमसी में रहते हुए मुकुल रॉय संगठन खड़ा करने के लिए काम करते रहे हैं, यहां भी वे इसी रोल में दिख रहे हैं. उनकी पहचान कुशल वक्ता के रूप में नहीं है. इसके अलावा गायकी का पेशा छोड़कर केंद्रीय मंत्री बने बाबुल सुप्रियो को भी पार्टी का चेहरा बनाने की नाकाम कोशिश हो चुकी है. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष भी ऐसा चेहरा नहीं हैं जिनका प्रभाव पूरे राज्य में हो.
इस मोर्चे पर ममता से मात खा जाते हैं पीएम मोदी
2014 के लोकसभा चुनाव के बाद कई राज्यों में बीजेपी को मिली जीत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे का बड़ा योगदान रहा है. जहां तक पश्चिम बंगाल की बात है तो यहां ममता बनर्जी के मुकाबले पीएम मोदी उतने प्रभावी नहीं हैं. इसकी बड़ी वजह भाषा की समस्या है. पीएम मोदी बांग्ला भाषा नहीं बोल पाते हैं. इसी कमी को पूरा करने के लिए हालिया रैलियों में बीजेपी के नेता बांग्ला की दो-तीन पंक्तियां बोलकर भाषण की शुरुआत कर रहे हैं. जानकार मानते हैं कि पश्चिम बंगाल की आबादी का बड़ा तबका केवल बांग्ला ही समझती है. उसके पीछे साक्षरता की कमी है. इस वजह से पीएम मोदी या अमित शाह सरीखे नेता भाषण देते हैं तो वह सीधे जनता को समझ में नहीं आती है. वहीं ममता हर बात जनता तक सीधे पहुंचती है. बीजेपी के प्रचार तरीकों पर नजर डालें तो वह केंद्रीय नेताओं की टीम राज्यों उतार देती है, लेकिन पश्चिम बंगाल में यह फॉर्मूल प्रभावी नहीं है. क्योंकि केंद्र के बड़े नेता बांग्ला नहीं बोल पाते हैं.
बुद्धिजीवियों के बीच नहीं है बीजेपी की छाप
रविंद्र नाथ टैगोर और स्वामी विवेकानंद जैसी महान हस्तियों की धरती में एक बड़ा तबका बुद्धिजीवियों की है. इस तबके पर तृणमूल कांग्रेस की अच्छी पकड़ है. राज्य के ज्यादातर बुद्धिजीवी टीएमसी के साथ जुड़े हैं. वहीं बीजेपी के खेमे में इसकी भारी कमी है.