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क्या व्यभिचार पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला विवाह संस्था के लिए खतरा है?

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने व्यभिचार कानून पर अहम फैसला सुनाते हुए इसे असंवैधानिक करार दिया है. अदालत ने इससे जुड़ी धारा 497 को रद्द करते हुए कहा कि महिलाओं के साथ असमान व्यवहार करने वाला कोई भी प्रावधान संवैधानिक नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को ऐतिहासिक माना जा रहा है.

क्या था कानून?

1860 में बने इस कानून के तहत पुरुष यदि किसी विवाहित महिला से यौन संबंध बनाता है तो उस महिला का पति उस पुरुष पर मुकदमा कर सकता था. इसके लिए दोषी व्यक्ति को पांच साल की सजा या जुर्माना या फिर दोनों हो सकते थे. अविवाहित, तलाकशुदा, परित्यक्ता या विधवा के साथ संबंध बनाने वाले शादीशुदा पुरुष को व्यभिचार कानून के तहत दोषी नहीं माना जाता था. यही नहीं, इस कानून के आधार पर विवाहेतर संबंध बनाने वाला पुरुष ही सजा का भागी होता था, संबंध बनाने वाली महिला नहीं.

नए फैसले के पक्ष में शीर्ष अदालत ने क्या कहा?

पांच जजों की संविधान पीठ ने अपने निर्णय में इस कानून को संविधान की मूल भावना के खिलाफ बताया. उसने कहा कि आईपीसी की धारा 497, संविधान के अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करते हुए नागरिकों को मानवीय गरिमा और महिलाओं को समाज में बराबरी के अधिकार से वंचित कर रही थी. सुप्रीम कोर्ट का यह भी कहना था कि जिस काम में दोनों पक्षों की समान भूमिका है, कानून उसमें महिला और पुरुष में भेदभाव नहीं कर सकता.

कोर्ट का मानना है कि निजता के दायरे में हो रही किसी चीज को कानूनी अपराध से जोड़ना निजता के अधिकार का उल्‍लंघन है. संविधान पीठ का कहना है कि व्यभिचार की वजह से शादियां खराब नहीं होतीं, बल्कि शादी खराब होने की वजह से व्यभिचार होता है. उसके मुताबिक यह कहना निहायत अतार्किक होगा कि महिला यदि पति की मर्जी से विवाहेतर संबंध बनाए तो ठीक, अन्‍यथा यह अपराध है, यानी पति की मर्जी सर्वोपरि है. सभी जजों का मानना है कि अब समय बदल चुका है. पुरुष ‘सिड्यूस’ करता है और महिला ‘विक्टिम’ होती है, यह परिभाषा अब लागू नहीं होती. अदालत के मताबिक यह समानता का समय है और मर्द महिला का मालिक नहीं है.

व्यभिचार के नए कानून पर समाज की प्रतिक्रिया

157 साल पुराने इस कानून को असंवैधानिक ठहराए जाने पर समाज में मिली-जुली प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है. कुछ लोगों का कहना है कि इस कानून को खत्म करने से विवाह संस्था पर खतरा बढ़ जाएगा. यहां तक की केंद्र सरकार ने भी एक हलफनामा दर्ज करके इस कानून को बनाए रखने की मांग की थी. उसका तर्क था कि इसके हटाए जाने से वैवाहिक संबंधों की पवित्रता को नुकसान पहुंचेगा. दूसरी तरफ, कुछ अन्य लोगों ने इस फैसले का स्वागत करते हुए है कि यह एक लिंगभेदी कानून था जो कि एकसमान गलती के लिए सिर्फ पुरुष को अपराधी मानता था.

यह फैसला विवाह संस्था के लिए कितना खतरा है?

इस फैसले का विरोध कर रहे सभी लोगों, सरकार या संगठनों का एक स्वर में कहना है कि यह फैसला विवाह संस्था के लिए खतरा है. साथ ही यह भी इस कानून के खत्म होने से विवाह संस्था की पवित्रता कम हो जाएगी. सवाल उठता है कि क्या सच में ऐसा है.

समाजशास्त्री इससे इनकार करते हैं. उनका मानना है कि कम से कम इस कानून के खत्म होने से विवाह संस्था पर कोई असर नहीं पड़ने वाला, क्योंकि दबे-ढके ही सही पर ऐसे संबंध समाज में हमेशा से रहे हैं और आगे भी रहेंगे. सिर्फ एक कानून के होने या न होने से इन पर कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला.

विवाह संस्था असल में दो लोगों के परस्पर भरोसे और एक-दूसरे के प्रति प्रतिबध्दता पर टिका संबंध है. दो लोग यदि एक दूसरे के प्रति मन से प्रतिबध्दता महसूस नहीं करते, तो वह कभी भी कानून के डर से पैदा नहीं की जा सकती! सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद व्यभिचार कानूनन अपराध भले न हो, लेकिन यह तलाक लेने का आधार अभी भी है.

कुल मिलाकर इस फैसले ने व्यभिचार में सिर्फ महिला की समान जिम्‍मेदारी ही नहीं तय की, बल्कि यह उसकी इच्छा, जरूरत, अधिकार और गरिमा को स्वीकार करता है. अदालत के इस फैसले से पहली बार इस बात को साफ़ और दृढ तरीके से स्थापित किया है कि महिला पुरुष की संपत्ति नहीं है. अपने देह और दिमाग पर उसका अपना हक है. सिर्फ इस एक बात के लिए भी इस फैसले का स्वागत किया जा सकता है कि यह महिला को एक व्यक्ति के रूप में स्वीकार करने की बात करता है. अपने शरीर से जुड़े निर्णय को लेने का हक उसे देता है.

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