प्राचीन भारतीय परंपरा में डाकुओं और बागियों के हृदय-परिवर्तन की कई किंवदंतियां मौजूद रही हैं. वाल्मीकि से लेकर अंगुलिमाल तक के नाम सहज ही लोगों के दिमाग में आ जाते हैं. लेकिन आधुनिक भारत ने भी ऐसा ही एक पूरा दौर देखा जिसकी मिसाल दुनिया में शायद और कहीं भी दिखाई नहीं देती. पहले विनोबा और बाद में जयप्रकाश नारायण (जेपी) के अहिंसक व्यक्तित्व और जीवन-संदेशों से प्रभावित होकर उनके सामने देश के सबसे खूंखार माने जानेवाले हथियारबंद दस्तों ने एक के बाद एक आत्मसमर्पण किया था. जेपी ने तो मुसहरी प्रखंड (बिहार) में किए गए अपने प्रयोगों से यहां तक दिखाया था कि नक्सलियों के साथ भी अहिंसक संवाद और रचनात्मक पहल संभव है. एक ऐसे समय में जब हम चारों ओर हथियारबंद समूहों की हिंसा से घिरे हुए हैं, आज जेपी की जयंती पर उस पूरी कहानी को जानना एक उपयुक्त अवसर हो सकता है.
अक्टूबर, 1971 की बात है. लंबे डील-डौल के एक व्यक्ति पटना में जेपी से मिलने आए. उन्होंने अपना नाम रामसिंह बताया और कहा कि वे चंबल घाटी में जंगल के ठेकेदार हैं. उनका कहना था कि वे चंबल के कुख्यात बागियों की ओर से यह सन्देश लेकर आए हैं कि यदि जेपी इस काम को हाथ में ले लें तो दस-बीस नहीं, बल्कि सब-के-सब बागी आत्मसमर्पण कर देंगे और इस इलाके में डाकू समस्या का पूरी तरह अंत हो जाएगा. लेकिन अन्य व्यस्तताओं के चलते जेपी इस जिम्मेदारी को स्वयं नहीं उठाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने रामसिंह को विनोबा के पास जाने को कहा. लेकिन रामसिंह ने कहा कि उनका एक प्रतिनिधि पवनार आश्रम में विनोबा से पहले ही मिल चुका है और विनोबा ने ही इस कार्य के लिए जेपी का नाम सुझाया है. फिर भी जेपी इसे फिलहाल टालना ही चाहते थे.
लेकिन रामसिंह दोबारा भी जेपी से मिले और उन्हें मनाने की कोशिश की. तभी अचानक एक अजीब सी घटना घटी जिससे जेपी चौंक से गए. अभी तक रामसिंह का रूप धरे उस व्यक्ति ने अकस्मात् जेपी से कहा- ‘बाबूजी मैं ही माधोसिंह हूं.’ जिस तरह से माधोसिंह ने अपना असली रूप प्रकट किया उससे जेपी जैसे व्यक्तित्व भी एकबारगी स्तंभित रह गए. उन्होंने सिर्फ इतना पूछा- ‘आप पर डेढ़ लाख रुपये का इनाम है, ऐसे में आपने मेरे पास आने का जोखिम कैसे उठाया?’
इसपर माधोसिंह ने कहा- ‘आप पर हमलोगों का पूरा विश्वास है, इसलिए आया.’ इतना कहते ही माधोसिंह ने घुटने टेक कर हाथ जोड़ते हुए स्वयं को जेपी के सामने समर्पित कर दिया. इस घटना के बारे में बात करते हुए जेपी कहा करते थे, ‘इस तरह यह काम मानो आसमान से मेरे सिर आ पड़ा.’
“विनोबा जब कश्मीर की यात्रा पर थे, तब उन्हें चंबल घाटी के प्रसिद्ध डाकू मानसिंह के बेटे तहसीलदार सिंह का पत्र मिला कि उसे फांसी की सजा सुना दी गई है और फांसी पर चढ़ने से पहले वह संत विनोबा का दर्शन करना चाहता है”
दरअसल जेपी ने आत्मसमर्पण के काम के लिए विनोबा के पास जाने की सलाह इसलिए दी थी कि 1960 में आधुनिक दुनिया के इतिहास में पहली बार किसी खूंखार हथियारबंद समूह ने किसी संत के सामने सार्वजनिक रूप से और स्वेच्छा से आत्मसमर्पण किया था. उसकी कहानी कुछ इस तरह है कि विनोबा जब कश्मीर की यात्रा पर थे, तब उन्हें चंबल घाटी के प्रसिद्ध डाकू मानसिंह के बेटे तहसीलदार सिंह का पत्र मिला कि उसे फांसी की सजा सुना दी गई है और फांसी पर चढ़ने से पहले वह संत विनोबा का दर्शन करना चाहता है.
विनोबा समझ गए कि तहसीलदार सिंह के मन में अवश्य कोई ऐसी बात है जो वह उन्हें ही बताना चाहते थे. लेकिन विनोबा अपनी यात्रा बीच में नहीं छोड़ सकते थे. इसलिए उन्होंने तत्क्षण ही अपने दूत के रूप में मेजर जनरल यदुनाथ सिंह को तहसीलदार सिंह से मिलने के लिए इलाहाबाद के पास नैनी सेंट्रल जेल में भेजा. जेल में तहसीलदार सिंह से मिलने के बाद यदुनाथ सिंह चंबल घाटी में भी गए और वहां मानसिंह – दल के दूसरे बहुत से डाकुओं से भी मिले.
वहां से लौटकर यदुनाथ सिंह ने विनोबा को डाकुओं का संदेश बताया कि कश्मीर से लौटते हुए यदि विनोबा चंबल घाटी भी पधारें तो कुछ डाकू उनके सामने आत्मसमर्पण कर सकते हैं. यह एक अभूतपूर्व घटना हो सकती थी. विनोबा ने यह सोचकर उस इलाके में जाना स्वीकार कर लिया कि यदि अहिंसा के जरिए ये डाकू सामान्य जीवन अपनाना स्वीकार कर लें, तो यह एक अनूठा प्रयोग होगा जिससे अन्य हथियारबंद समूहों के भी हथियार छोड़ने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है. जब यह बात मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. कैलाशनाथ काटजू तक पहुंची, तो उन्होंने इस काम के लिए विनोबा को आग्रह भरा निमंत्रण भी भेज दिया. पंजाब होते हुए जब विनोबा की पदयात्रा उत्तर प्रदेश के आगरा में पहुंची तो केन्द्रीय गृह मंत्री गोविन्द वल्लभ पंत और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री सम्पूर्णानंद भी उनसे मिलकर इसकी कार्ययोजना बनाने पहुंचे. डाकुओं की इस समस्या से तब मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के साथ-साथ राजस्थान भी पीड़ित था.
7 मई, 1960 को जब विनोबा ने चंबल के बीहड़ों में प्रवेश किया, तो पूरा देश आशा और जिज्ञासा भरी नजरों से उनकी ओर देख रहा था. क्योंकि तीनों राज्यों की पुलिस और फौज तक के संयुक्त प्रयासों के बावजूद इस समस्या का अंत नहीं किया जा सका था. लेकिन चंबल के भीतर अपनी प्रार्थना सभा के बाद विनोबा ने कहा- ‘अकेला एक भगवान ही जानता है कि डाकू कौन है. कुछ आदमी डाकू के नाम से बदनाम हैं. लेकिन अकेले वे ही डाकू हैं, यह बात सही नहीं है. भगवान की नजर में कुछ दूसरे आदमी इन बदनाम डाकुओं से भी अधिक जुर्म करने के अपराधी हो सकते हैं. कुछ लोग आशा करते हैं कि मैं डाकुओं की समस्या हल करने जा रहा हूं. पर बात बिल्कुल दूसरी है. इन समस्याओं को हल करनेवाला मैं कौन होता हूं? मैं तो भगवान का तुच्छ सेवक हूं, जो भले आदमियों की सेवा के लिए गांव-गांव घूम रहा है. …मैं तो बुद्ध और ईसा के चरण-चिह्नों पर चलने की कोशिश कर रहा हूं. मेरी तो केवल एक इच्छा है. आज करुणा की जो नदी सूखी पड़ी है, वह फिर से बहने लग जाए.’
“जेपी ने बागी-समस्या का गहराई से अध्ययन करने का काम वाराणसी स्थित एक वरिष्ठ शोधकर्ता को सौंपा था और उसके अध्ययन के आधार पर ‘चंबल घाटी शांति मिशन’ की स्थापना की थी”
इसके बाद तो इस शांति-यात्रा में एक के बाद एक कई कुख्यात डाकुओं ने आत्मसमर्पण कर दिया. 19 मई, 1960 को डाकू-गिरोहों के 11 मुखियाओं ने लुक्का के नेतृत्व में विनोबा के चरणों में अपने हथियार रख दिए. लुक्का ने अश्रुपूरित आंखों से कहा था- ‘अब तक हमने बहुत से बुरे काम किए हैं. उन पर हमें दुःख हो रहा है.’ यही लुक्का आगे चलकर पंडित लोकमन के नाम से प्रसिद्ध हुए. उन्होंने बाद में जेपी के साथ मिलकर कई वर्षों तक अन्य डाकुओं से आत्मसमर्पण कराने में भी अहम भूमिका निभाई.
विनोबा इन्हें डाकू की जगह बागी कहना उचित समझते थे. चंबल में अपनी एक प्रार्थना सभा में विनोबा ने कहा था- ‘लोग कहते हैं कि यहां डाकुओं की समस्या है. लेकिन इस समस्या के मुख्य कारण तो हैं गरीबी, व्यक्तिगत दुश्मनी और पुलिस. इस समस्या का चौथा कारण है दलगत राजनीति और चुनाव. अगर इन कारणों को दूर कर दिया जाए, तो डाकुओं की समस्या अपने-आप हल हो जाएगी.’ बाद में विनोबा ने भिंड के जिला जेल में जाकर इन कैदियों के साथ एक प्रार्थना सभा का आयोजन किया. प्रेम और करुणा से इन डाकुओं के हृदय-परिवर्तन को देखकर पुलिस-अधिकारी भी बहुत अधिक प्रभावित हुए थे.
बातें बनानेवालों ने तब भी खूब बातें बनाई थीं. किसी ने कहा डाकुओं ने इसलिए आत्मसमर्पण कर दिया था कि उनके पास कोई चारा नहीं था. किसी ने कहा कि जरूर उन्हें अपने साथ रियायत बरते जाने का आश्वासन मिल गया होगा. जबकि इधर कुछ सर्वोदय कार्यकर्ता इस बात से नाराज थे कि डाकुओं को जेल भेजकर उनपर मुकदमा क्यों चलाया गया. किसी ने इसे पुलिस का मनोबल तोड़नेवाला कदम भी बताया. इसपर विनोबा जैसे संत तक को यह कहना पड़ा कि ‘इस संसार में हम किसी अच्छे काम को आगे बढ़ते नहीं देखना चाहते. हम दूसरों मे श्रद्धा-विश्वास नहीं करना चाहते. मैं तो यही मानता हूं कि आत्मसमर्पण करनेवालों का हृदय सचमुच बदल गया है.’
विनोबा के इस अहिंसक प्रयोग से जेपी भी चमत्कृत हुए बगैर नहीं रह सके थे. इसलिए 12 वर्ष बाद उन्होंने माधोसिंह जैसे इनामी बागी को पहले अपने घर पर और फिर गया स्थित अपने एक आश्रम में टिका तो लिया, लेकिन उन्हें अपनी अध्यात्मिक अपील की सीमाओं का भान था. फिर भी गांधी और विनोबा के सान्निध्य में वे तब तक अहिंसा और सर्वोदय विचार को पूरी तरह आत्मसात कर चुके थे. सो उन्होंने अपने स्वभाव और कार्यशैली के अनुरूप ही ठेठ समाजशास्त्रीय तरीका अपनाया. उन्होंने बागी-समस्या का गहराई से अध्ययन करने का काम वाराणसी स्थित एक वरिष्ठ शोधकर्ता को सौंपा. उस शोधकर्ता ने चंबल जाकर गहराई से और सभी नजरिए से इस समस्या की सविस्तार और पूरी पड़ताल की.
“जेपी मानते थे कि हर प्रकार की हिंसक बगावत की जड़ें बहुत गहरी होती हैं, इतिहास में होती हैं, इसकी जड़ें भूगोल में, मनोविज्ञान में, समाज और राज्यतंत्र की रचना में और राजनीति के चरित्र में होती हैं”
इस शोधपत्र के आधार पर जेपी ने ‘चंबल घाटी शांति मिशन’ की स्थापना कर 15 दिसंबर, 1971 को बागियों के नाम एक अपील जारी की. इस पर्चे में जहां एक तरफ उन्होंने बागियों से हिंसा का रास्ता त्यागकर समाज के सामने आत्मसमर्पण करने की अपील की थी, वहीं उन्होंने समाज और सरकार से भी अपील की थी कि आत्मसमर्पण करनेवालों के साथ उदारता और सहानुभूति भरा व्यवहार किया जाए. इस अपील की हजारों प्रतियां चंबल में बांटी गईं जिसमें पुलिस ने भी सहयोग किया. जेपी ने अपनी ओर से बागियों को केवल एक आश्वासन दिया था कि उन्हें बाकी जो सजा हो सो हो, लेकिन फांसी नहीं होगी. क्योंकि जेपी का तर्क था कि यदि समर्पण करनेवाले को अंत में फांसी ही मिलनेवाली हो, तो वह समर्पण ही क्यों करेगा. जेपी ने कारुणिक स्वर में कहा था- ‘आपकी जान और अपनी जान को मैंने एक तराजू में रख दिया है. फिर भी यदि किसी को फांसी होगी, तो मैं उपवास करके मर जाऊंगा.’
तहसीलदार सिंह और पंडित लोकमन (लुक्का) को भी तात्कालिक रूप से जेल से निकालकर इस काम में लगाया गया. इन दोनों का शांतिमय व्यवहार, स्पष्टवादिता और गहरी समझदारी का बाकी बागियों पर बहुत असर पड़ता था. जिस डाकू मोहरसिंह पर सबसे अधिक (दो लाख रुपये) का इनाम था, उसके बारे में मुख्यमंत्री और किसी भी पुलिस अधिकारी को अंत तक विश्वास नहीं था कि वह कभी आत्मसमर्पण करेगा. लेकिन आश्चर्यजनक रूप से सबसे पहले उसने ही आत्मसमर्पण किया. किसी भी डाकू-समूह ने अपनी कोई मांग या शर्त नहीं रखी.
इस तरह 14 अप्रैल और 16 अप्रैल, 1972 को कुल मिलाकर लगभग पांच सौ से ज्यादा बागियों ने जेपी की उपस्थिति में और महात्मा गांधी के चित्र के सामने अपने हथियार डालकर आत्मसमर्पण किए. इस बारे में जेपी ने कहा था, ‘12 साल पहले विनोबाजी ने बीज बोया था, उसी का यह पौधा निकला है. विनोबाजी ने बड़े साहस से प्रेम का एक प्रयोग किया था …और वह साबित कर सके थे कि अपराधों के मामले में काम करने की एक मानवीय और अधिक सभ्य रीति भी है.’
जेल में जाने के बहुत दिनों बाद बागियों ने जेपी को एक पत्र भेजा. जिसमें उन्होंने लिखा था कि हमारे जो दुश्मन कहलाते हैं, अब हम तो उन्हें अपना दुश्मन मानते ही नहीं, क्योंकि हमने अपना जीवन परिवर्तन कर लिया. लेकिन वे शायद आज भी हमें अपना दुश्मन मानते होंगे, तो प्रशासन उन लोगों को ले आये हमारी जेल में. हम उन्हें गले से लगाएंगे. और हम दुश्मनी की सारी बात भूल जाएंगे और उनसे भी भुलाने की प्रार्थना करेंगे.
“आज हमारे पास बंदूक के जवाब में केवल बंदूक ही रह गई है. हिंसा छोड़ने की सरकारी अपीलों की भाषा और भावना एकदम फीकी और घिसी-पिटी लगती है”
जेपी के भी प्रयासों को केवल सराहना मिली हो, ऐसी बात नहीं है. इसलिए जेपी ने आलोचकों का प्रबोधन करते हुए एक बार कहा था- ‘बहुत दफा यह बात कही जाती है कि सर्वोदय वालों ने डाकुओं को ‘हीरो’ बना दिया है, ‘ग्लैमराइज’ किया है. मैं कहना चाहता हूं कि हमने उन्हें हीरो नहीं, बल्कि उन्हें गले लगाकर भाई बनाया है, मनुष्य बनाया है, गांधी परिवार में शामिल किया है.’
जेपी मानते थे कि हर प्रकार की हिंसक बगावत की जड़ें बहुत गहरी होती हैं, इतिहास में होती हैं, इसकी जड़ें भूगोल में, मनोविज्ञान में, समाज और राज्यतंत्र की रचना में और राजनीति के चरित्र में होती हैं. इसलिए ऐसी समस्याओं को सुलझाने का काम किसी अकेले जयप्रकाश की शक्ति के बाहर का है. सारा समाज सभी स्तरों पर इस समस्या का अंत करना चाहे और उसके लिए ईमानदारी से प्रयास करे, तो ही कुछ हो सकता है.
आत्मसमर्पण के सरकारी प्रयास और आयोजन बाद में भी हुए. कश्मीर से लेकर बिहार और छत्तीसगढ़ तक में हुए हैं. आज इनमें से कई आयोजनों पर तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं, क्योंकि ऐसे प्रयासों का पूरी तरह से सरकारीकरण कर दिए जाने बाद इनमें तरह-तरह की विकृतियां आती देखी गई हैं. छत्तीसगढ़ के मौजूदा संघर्षो से ऐसी ही खबरें आती रहती हैं जहां निरीह आदिवासियों का गांव का गांव महिलाओं और बच्चों समेत आत्मसमर्पण करता बताया जाता है. जबरन, फर्जी और केवल दिखावटी आत्मसमर्पण तक की खबरें आ रही हैं. इसका एकमात्र कारण यही जान पड़ता है कि अब हमारे बीच शायद वैसे लोग ही नहीं रहे जिनपर सभी पक्षों को भरोसा और श्रद्धा हो.
आज हमारे पास बंदूक के जवाब में केवल बंदूक ही रह गई है. हिंसा छोड़ने की सरकारी अपीलों की भाषा और भावना एकदम फीकी और घिसी-पिटी लगती है. नागरिक समाज के प्रतिनिधि संगठनों के लिए भी विश्वसनीयता का संकट खड़ा हो चुका है. सच पूछिए तो हम हृदय-परिवर्तन जैसी मानवीय संभावनाओं को स्वीकारने तक का साहस और धैर्य खोते जा रहे हैं.
तो क्या अहिंसक साधनों से हृदय-परिवर्तन का वह गांधीमार्गी दौर विनोबा और जेपी जैसों के साथ ही चला गया? या फिर ऐसे लोग इस युद्धोन्मादी दौर में अलग-थलग या मौन पड़े हैं? क्या अपनी विभूतियों को ऐसे याद करने पर भी हम मसीहावादी ठहरा दिए जाएंगे? जबकि एक नए किस्म का राजनीतिक और आक्रामक मसीहावाद हम सबको हिंसक बनाने का मनोवैज्ञानिक खेल खेलने में लगा है. और इसके लिए वह प्रोपेगेंडा से लेकर सैन्य-कार्रवाइयों तक का राजनीतिक इस्तेमाल करने में लगा है.